(आलेख : राजेंद्र शर्मा)
थैंक यू चुनाव आयोग जी, थैंक यू वेरी मच। थैंक यू गुजरात के नतीजे आने के फौरन बाद, यह एकदम साफ कर देने के लिए कि शाह साहब ने गुजरात में चुनावी सभा में जो 2002 में ‘‘सबक सिखाने’’ की याद दिलायी थी, उसमें आदर्श चुनाव संहिता के उल्लंघन की सारी खबरें कोरी अफवाह थीं। शाह साहब ने जो कुछ भी कहा और जैसे भी कहा, उसके बाद आचार संहिता तो खूब खुशो-खुर्रम नजर आ रही थी। उसका कहीं कोई उल्लंघन-वुल्लंघन नहीं हुआ था। वर्ना उसने आयोग से उल्लंघन की जरूर शिकायत की होती। बाकायदा उल्लंघन की न सही, कम से कम छेड़छाड़ की तो शिकायत की होती। पर उसने तो रत्तीभर शिकायत नहीं की। जिसके उल्लंघन का इल्जाम है, उसे तो कोई शिकायत नहीं थी, बल्कि खुश खुश थी। फिर भी विरोधी झूठे ही पीछे पड़े हुए थे कि शाह साहब ने उल्लंघन कर दिया, आचार संहिता का उल्लंघन हो गया। और तो और, आयोग से भी शिकायत करने पर उतर आए थे कि बेचारी संहिता का ऐसे उल्लंघन कैसे होने दे रहे हैं। कुछ करते क्यों नहीं हैं? सो आयोग ने बहुत अच्छा किया। चुनाव के बाद पहली ही फुर्सत में दो-टूक फैसला सुना दिया — न शाह जी ने कोई उल्लंघन किया है और न हमारी आचार संहिता का कोई उल्लंघन हुआ है। सारी शिकायतें खारिज!
वैसे समझ में तो हमारी भी नहीं आया कि शाह साहब ने जो 2002 के सबक की बात कही थी, उसमें विरोधियों को आपत्ति ठीक-ठीक किस चीज पर थी? 2002 को सबक कहने पर? 2002 के सबक के बाद बीस साल, 2022 तक गुजरात में शांति छाए रहने की बात पर? आगे उसी तरह शांति चलाते रहने के लिए, मोदी जी की खड़ाऊं के लिए वोट मांगे जाने पर? या फिर मोदी जी की एवज में शाह साहब के इसकी याद दिलाने पर कि 2002 का पक्का वाला सबक, उनके मोदी जी के राज में ही सिखाया गया था? जाहिर है कि आखिरी वाली आपत्ति तो एकदम बकवास है।
असली बात है, सबक सिखाना और सबक सिखाया गया था, मोदी जी के राज में, इसमें कोई दो राय नहीं हो सकतीं। फिर इससे क्या फर्क पड़ता है कि चुनाव में खुद मोदी जी उस पुराने सबक की याद दिलाते हैं या उनके नंबर टू, शाह साहब! सच पूछिए तो सबक की तरह, मोदी जी का राज भी तो कितना पुराना हो गया। सब जोडक़र सत्ताईस बरस। चार तो मोदी जी वाले चुनाव ही हो लिए। अब हर चुनाव में 2002 का सबक मोदी जी ही अपने मुंह से सुनाते, तो क्या पब्लिक भी सुन-सुनकर और मोदी जी सुना-सुनाकर, बोर नहीं हो जाते? वैसे भी असली बात थी सबक सिखाना, सो मोदी जी ने सिखा दिया। अच्छी तरह से सिखा दिया। इसके बाद हरेक चुनाव के टैम पर अगर सबक का रिवीजन भी मोदी जी को ही कराना पड़ेगा, तो दूसरे भगवा जन क्या सिर्फ मोदी-मोदी-मोदी ही करेंगे!
सच पूछिए तो इस मामले काफी गड़बड़ी ’सबक’ के अर्थ के मामले में कन्फ्यूजन से भी हुई है। हैरानी नहीं होगी कि यह भगवाइयों के खिलाफ ‘‘शब्द जेहाद’’ का सहारा लिए जाने का ही मामला हो। वर्ना सबक सीखना-सिखाना तो शिक्षा के क्षेत्र का मामला है। और शिक्षा माने, विकास; शिक्षा माने विश्व गुरु। राष्ट्र के गौरव के ऐसे विषय को, पार्टियों के बीच राजनीतिक खींचतान का मुद्दा क्यों बनाया जा रहा है? माना कि शाह साहब ने 2002 का सबक चुनाव के मौके पर रिवाइज कराया है। माना कि उन्होंने 2002 का सबक, चुनावी सभा में पब्लिक को याद कराया है। लेकिन, क्या इसीलिए इसे राजनीतिक झगड़े का मुद्दा बना लिया जाएगा? स्कूल की कक्षा में बैठकर सिखाया जाए तो और चुनाव में पब्लिक की सभा में सिखाया जाए तो, सबक सिखाना रहेगा तो शिक्षा का मामला ही।
वैसे भी कहते हैं कि पब्लिक सबसे ज्यादा तो जल्से-जुलूसों में ही सीखती है। अगर खुले विद्यालय शिक्षा का हिस्सा हो सकते हैं, सांध्य विद्यालय हो सकते हैं, चरवाहा विद्यालय हो सकते हैं, अब तो डिजिटल विद्यालय भी हो सकते हैं, तब चुनाव विद्यालय क्यों शिक्षा के क्षेत्र का हिस्सा नहीं हो सकते? फिर गुजरात के चुनाव विद्यालय में शाह साहब के कोर्स पर इतनी हाय-हाय क्यों? याद रहे कि यह तब है, जबकि शाह जी-मोदी जी शिक्षा की पवित्रता का इतना ख्याल रख रहे हैं कि इतिहास फिर से लिखवाने की अपनी सारी तैयारी के बाद भी, 2002 के गुजरात के सबक में एक हर्फ तक नहीं बदला है।
बताइए, मोदी जी के नंबर टू होकर भी शाह साहब अभी तक/ यही पढ़ा रहे हैं कि 2002 में मोदी जी का राज था और उन्होंने पक्का सबक सिखा दिया! अगर नये इतिहास में शाह साहब 2002 में किसी और का राज पढ़ा देते, किसी और को सबक का कर्ता बता देते या 2002 के नरसंहार को ही देसी-विदेशी टूल किटों का मोदी-विरोधी प्रचार बता देते और मोदी को बेचारा विक्टिम बना देते, तो कौन उनका हाथ पकड़ लेता!
सो, 2002 के सबक वाले गुजरात मॉडल पर कोई आंच नहीं आने देने के लिए चुनाव आयोग का बेशक बहुत-बहुत थैंक यू। फिर भी मॉडल और भी हैं, जो जिनके लिए आयोग का थैंक यू बनता है। यूपी वाले रामपुर मॉडल के लिए तो आयोग का एकदम गुजरात मॉडल की टक्कर का थैंक यू बनता है। माना कि रामपुर मॉडल अभी गुजरात सबक मॉडल के मुकाबले बहुत नया है और छोटा भी है, जिसे एक विधानसभाई सीट पर ही आजमाया गया है। फिर भी है एकदम शर्तिया, सौ फीसद कामयाबी का मॉडल। जो खिलाफ नजर आए, पोलिंग बूथ की देहरी तक पहुंचने ही नहीं पाए। न विरोधियों का वोट पड़ेगा और न पब्लिक को समझाने, पटाने, रिझाने, बहकाने का चक्कर रहेगा। दुश्मनों को सबक सिखाकर दिखाने तक का चक्कर नहीं। वोटों की गिनती तक का इंतजार नहीं। चुनाव भी और जीत की सौ फीसद गारंटी भी। सो थैंक यू चुनाव आयोग, मोदी जी के गुजरात सबक मॉडल के होते हुए भी, योगी जी के रामपुर मॉडल को भी चांस दिलाने के लिए। बराबरी के दावे के लिए इंतजार करने के लिए योगी जी के पास अभी काफी टाइम है।
अमृतकाल में डेमोक्रेसी की मम्मी के पास, भगवा राज को अजर-अमर बनाने के लिए चॉइस ही चॉइस हैं: गुजरात मॉडल भी और रामपुर मॉडल भी — चुन तो लें।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और ’लोकलहर’ के संपादक हैं।)