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अन्यEditorial/संपादकीयजनता के विचार

मीलॉर्ड! नोटबंदी कानूनी हो सकती है, पर सही नहीं!

(आलेख : राजेंद्र शर्मा)

चाहे तो मोदी सरकार इसे अपने लिए सुप्रीम कोर्ट का नव वर्ष का उपहार मान सकती है। 2016 के 8 नवंबर को नरेंद्र मोदी ने, रात 8 बजे राष्ट्र को संबोधित करते हुए, चार घंटे बाद ही, मध्य रात्रि से पांच सौ रुपए तथा हजार रुपए के नोटों का चलन बंद हो जाने का जो ऐलान किया था, उसकी कानूनी वैधता को चुनौती देने वाली याचिकाओं को सर्वोच्च न्यायालय ने आखिरकार खारिज कर दिया है। पूरे छ: साल के बाद, 2023 के दूसरे ही दिन सुनाए गए फैसले में, पांच सदस्यीय संविधान पीठ ने, एक असहमति के खिलाफ चार न्यायाधीशों के बहुमत से, नोटबंदी के मोदी सरकार के फैसले को ‘वैध’ माना है, जबकि न्यायमूर्ति नागरत्ना ने इस फैसले से अहमति दर्ज कराते हुए, इसे एक ‘अवैध’ निर्णय बताया है।

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मोदी सरकार और उसके समर्थकों के सुप्रीम कोर्ट द्वारा नोटबंदी को सही ठहराए जाने के दावों के विपरीत, सुप्रीम कोर्ट ने बहुत ही सचेत तरीके से और स्पष्ट रूप से, नोटबंदी के कदम के सही या गलत होने के सवाल से, खुद को पूरी तरह से दूर ही रखा है। वास्तव में, संविधान पीठ ने साफ तौर पर कहा है कि अनेक याचिकाकर्ताओं की दलीलों के विपरीत, उसके लिए तो यह सवाल ही अप्रासांगिक था कि, नोटबंदी करते हुए सरकार की ओर से इसके जो भी लक्ष्य घोषित किए गए थे, उनमें से कोई लक्ष्य हासिल भी हुए या नहीं? सुप्रीम कोर्ट ने सार-रूप में इस निर्णय की कानूनी प्रक्रियागत वैधता पर ही विचार ही किया था— क्या इस मामले में जो प्रक्रिया अपनाई गई, वह संबंधित निर्णय को अवैध बनाती है या नहीं? बहुमत का निर्णय है—नहीं।

वास्तव में इस कानूनी प्रक्रियागत निर्णय का नुक्ता इससे भी सीमित है। उसका प्रश्न तो रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया कानून की धारा-26 (2) के अंतर्गत, नोटबंदी के निर्णय वैधता तक सीमित है। याद रहे कि न्यायमूर्ति नागरत्ना के असहमति के फैसले से यह पूरी तरह से स्पष्ट है कि अदालत के विचार का विषय यह भी नहीं था कि निर्वाचित सरकार को, नोटबंदी करने यानी खास श्रेणी के नोटों का चलन रोकने का अधिकार है या नहीं है। उल्टे असहमति के अपने निर्णय में उन्होंने स्पष्ट रूप से सुझाया है कि अगर सरकार ने नोटबंदी का फैसला करने का मन बना ही लिया था, तो उसे यह काम संसद के कानून के जरिए करना चाहिए था, जो कि इससे पहले हुए नोटबंदी के दो प्रकरणों में किया भी गया था। यहां तक कि उन्होंने यह भी सुझाया है कि अगर संबंधित निर्णय के लिए गोपनीयता अपरिहार्य थी और संसद के कानून बनवाने की प्रक्रिया का सहारा लेने की सूरत में गोपनीयता की रक्षा नहीं की जा सकती थी, तो सरकार इसके लिए अध्यादेश का भी सहारा ले सकती थी।

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असहमति के फैसले में, बहुमत के फैसले के विपरीत, नोटबंदी के निर्णय को ठीक इसीलिए ‘अवैध’ करार दिया गया है कि कार्यपालिका ने उक्त फैसले के जरिए, संसद को धता बताकर, अपनी मनमर्जी को सीधे देश पर थोप दिया था! और आरबीआई कानून की धारा-26 (2) के अंतर्गत, जो सरकार को रिजर्व बैंक (बोर्ड) के परामर्श से ऐसा कोई निर्णय लेने का अधिकार देती है, मोदी सरकार के इस निर्णय को इसलिए वैध नहीं माना जा सकता है कि वास्तव में नोटबंदी के निर्णय के मामले में जो हुआ था, उसे ‘रिजर्व बैंक के परामर्श से निर्णय’ नहींं माना जा सकता है।

असहमति के निर्णय में इस सिलसिले में तीन निर्विवाद तथ्यों को रेखांकित किया गया है। पहला, नोटबंदी, रिजर्व बैंक के सुझाव पर नहीं, मोदी सरकार के फैसले से की गई थी। दूसरे, सरकार की मांग पर, 24 घंटे के अंदर-अंदर रिजर्व बैंक ने नोटबंदी के निर्णय पर, अपने अनुमोदन की मोहर लगा दी थी। तीसरे, रिजर्व बैंक ने स्वतंत्र रूप से इस मामले में अपने विवेक का व्यवहार ही नहीं किया था!

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संक्षेप में यह कि चूंकि नोटबंदी का फैसला सरकार का ही फैसला था, न कि रिजर्व बैंक का अपना फैसला, इसलिए उसकी वैधता के लिए संसदीय अनुमोदन का रास्ता अपनाया जाना जरूरी था। इससे बचने के लिए, सरकार ने रिजर्व बैंक कानून की धारा 26 (2) की आड़ लेने की कोशिश की थी, जो नोटबंदी के फैसले को अवैध बना देता है। अल्पमत का निर्णय, याचिकाकर्ताओं की इस अपील से सहमति जताता है कि रिजर्व बैंक के परामर्श से निर्णय की उक्त व्यवस्था का सहारा वैध रूप से तभी लिया जा सकता था, जब रिजर्व बैंक के केंद्रीय बोर्ड ने स्वतंत्र रूप से नोटबंदी की सिफारिश की होती, न कि सरकार की मांग या सलाह पर उससे ताबड़तोड़, अपने विवेक का उपयोग किए बिना ही, हामी भरवा ली गई होती, जैसा कि साफ तौर पर इस मामले में हुआ था।

बहरहाल, बैंच के बहुमत की राय में सरकार के निर्णय के लिए, रिजर्व बैंक कानून की उक्त धारा का बचाव हासिल होने के लिए, इतना ही काफी था कि सरकार ने रिजर्व बैंक से राय ली थी। बहुमत के तर्क के अनुसार, रिजर्व बैंक कानून की उक्त धारा की शर्त पूरी करने के लिए यह जरूरी नहीं है कि निर्णय उसकी ओर से ही आए, बल्कि निर्णय सरकार की ओर से भी आ सकता है। इसके अलावा, बहुमत के फैसले में इसका भी उल्लेख किया गया है कि इस प्रश्न पर रिजर्व बैंक और सरकार के बीच, छ: महीने से चर्चा चल रही थी!

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बेशक, इस पर तो बहस हो सकती है कि इस तरह के निर्णय के लिए हमारे देश के कानून में, सरकार के लिए, भारतीय रिजर्व बैंक के परामर्श से निर्णय लेने की जो शर्त लगाई गई है, उसकी संबंधित बैंच के बहुमत की व्याख्या में, बैंच के अल्पमत की इस व्याख्या की तुलना में वाकई ज्यादा कानूनी वजन है या नहीं कि ऐसा सुझाव, रिजर्व बैंक के बोर्ड की ओर से ही आना चाहिए था। सरकार के सुझाव पर रिजर्व बैंक का हामी भरना, इस शर्त को पूरा करने के लिए काफी नहीं है, जो कि संक्षेप में जस्टिस नागरत्ना की दलील है। बहरहाल, इससे शायद ही कोई विवेकवान व्यक्ति असहमत होगा कि संबंधित प्रावधान की उक्त व्याख्या, बहुत ही संकुचित है। वास्तव में रिजर्व बैंक कानून की उक्त व्याख्या इतनी संकुचित है कि यह संबंधित व्यवस्था को एक निरर्थक, कानूनी खाना-पूर्ति ही बनाकर रख देती है।

यह समझना कोई मुश्किल नहीं है कि जनतांत्रिक शासन व्यवस्था में इस तरह के किसी भी परामर्श की अनिवार्यता का एक ही अर्थ है— निर्वाचित कार्यपालिका के मनमाने निर्णयों के खिलाफ संबंधित क्षेत्र में बचाव मुहैया कराना। वास्तव में संविधान पीठ के बहुमत के निर्णय में भी कार्यपालिका के मनमाने निर्णयों से इस तरह के बचाव या सेफगार्ड्स की जरूरत माना गया है तथा उसका उल्लेख भी किया गया है।

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लेकिन, बहुमत का निर्णय वास्तव में उक्त प्रावधान के बचाव की ठीक ऐसी व्यवस्था के रूप में काम करने की ही जड़ें काटता है। कहने की जरूरत नहीं है कि चुनी हुई सरकार, जिसके हाथ में रिजर्व बैंक बोर्ड में नियुक्ति तथा उससे हटाया जाना, दोनों ही होते हैं, जब अपनी ओर से तय कर के, रिजर्व बैंक जैसी किसी संस्था से, तुरंत अनुमोदन करने का तकाजा करती है, तो तय है कि उसे अपने निर्णय पर हामी ही सुनने को मिलेगी, न कि संबंधित संस्था की विशेषज्ञतापूर्ण स्वतंत्र राय! वास्तव में, ऐसी स्थिति से बचने के लिए ही कानून में उक्त व्यवस्था रखी गई है, वरना ऐसे कानून की और रिजर्व बैंक के बोर्ड की भी जरूरत ही क्या है? निर्वाचित सरकार कुछ भी तय कर सकती है!

विशेषज्ञतापूर्ण स्वतंत्र राय के अंकुश से पूरी तरह से बरी होकर कार्यपालिका, निर्वाचित होते हुए भी निरंकुश हो सकती है। यही इस समय देश में हो रहा है। नोटबंदी को कानूनी ठहराने का सुप्रीम कोर्ट का ताजा फैसला, इसी प्रवृत्ति को बल देगा।

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लेकिन, क्या यह इस प्रकार के कानूनी अनुमोदन के सामाजिक रूप से बहुत कम उपयोगी होने, बल्कि अनुपयोगी ही होने का ही सबूत नहीं है कि कानूनी वैधता का यह फैसला, इसकी ओर से पूरी तरह से आंखें बंद कर के लेना पड़ रहा है कि सरकार के नोटबंदी के फैसले से, करोड़ों आम नागरिेकों को कैसी मुसीबतें झेलनी पड़ी थीं और इसके बावजूद, यह फैसला अपने सभी घोषित लक्ष्यों को हासिल करने में पूरी तरह से विफल ही रहा है।

बेशक, यह कहा जा सकता है कि जनतांत्रिक व्यवस्था में, अंतत: जनता ही सरकार के गलत-सही निर्णयों पर अपना फैसला सुनाती है। लेकिन, जनतांत्रिक व्यवस्था में निर्वाचित कार्यपालिका के अलावा, दूसरी अनेकानेक संवैधानिक व कानूनी स्वतंत्र संस्थाओं, निकायों का ताना-बाना इसीलिए निर्मित किया जाता है कि अपने-अपने क्षेत्र मेें अपनी स्वतंत्र या स्वायत्त सत्ताओं के व्यवहार के जरिए, यह ताना-बाना पूरी व्यवस्था को, कार्यपालिका की मनमानी की ही व्यवस्था बनने से बचाए।

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विभिन्न संस्थाओं की यही स्वतंत्रता है, जो कार्यपालिका को नोटबंदी जैसे आत्मघाती कदमों के रास्ते पर बढ़ने से रोक सकती है, जिसे भारत की ऊंची वृद्घि दर को बैठा ही देने के लिए सबसे ज्यादा जिम्मेदार माना जाता है और जिससे एक अनुमान के अनुसार जीडीपी का करीब 15 लाख करोड़ रुपए का नुकसान हुआ था। दसियों करोड़ लोगों को नोट बदलवाने के लिए घंटों लंबी-लंबी लाइनों में लगना पड़ा था और अनेक लाइनों में लगे हुए मौत का ग्रास बनने वालों समेत, खबरों के अनुसार कम से कम 85 लोगों की इस नोटबंदी की ही वजह से जान गई थी। और इतनी भारी कीमत चुकाने के बाद भी देश को इस नोटबंदी से क्या मिला—हर लिहाज से बड़ा सा शून्य! और तो और, अर्थव्यवस्था में चलन में नकदी भी नोटबंदी के बाद से घटनेे के बजाय पूरे 71.84 फीसद बढ़ गई है और नोटबंदी से पहले के 17.7 लाख करोड़ रुपए के स्तर से बढ़कर, अब 30.38 लाख करोड़ रुपए तक पहुंंच चुकी है!

दुर्भाग्य से शीर्ष न्यायपालिका, कानून की संकीर्ण तकनीकी व्याख्याओं की आड़ में, कार्यपालिका की ऐसी सत्यानाशी मनमानी पर अंकुश लगाने की अपनी वैध भूमिका से ज्यादा से ज्यादा हाथ खड़े कर रही है। और यह तब है, जबकि मौजूदा शासन ने इसमें किसी शक की गुंजाइश नहीं छोड़ी है कि उसकी मंशा, अब शीर्ष न्यायपालिका की भी स्वतंत्रता छीनकर, संविधान के अंतर्गत उसे दी गई संवैधानिक समीक्षा की जिम्मेदारी को ही बेमानी बनाने की है।

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*(लेखक प्रतिष्ठित पत्रकार और ’लोकलहर’ के संपादक हैं।)*

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