जनता के विचार

नफ़रत के ख़िलाफ़ मोहब्बत की दुकान की, इस देश को कोई जरूरत नहीं!

(व्यंग्य : राजेन्द्र शर्मा)

हम तो रक्षा मंत्री जी की बात के कायल हो गए। सही कहा, मोहब्बत की दुकान खोलने की इस देश को कोई जरूरत नहीं है। यहां-वहां-कहां, खोलने की जरूरत नहीं है, कुछ नहीं बताया। किस को मोहब्बत की दुकान खोलने की जरूरत नहीं है, वह भी नहीं बताया। फकत इतना कहा कि मोहब्बत की दुकान खोलने की कोई जरूरत नहीं है। यानी किसी को भी, कहीं भी, मोहब्बत की दुकान खोलने की जरूरत नहीं है। रक्षा मंत्री से बेहतर कौन जानेगा कि कोविड वाले कम्पलीट लॉकडाउन की तरह, मोहब्बत की दुकान का कम्पलीट शटरडाउन, देश के रक्षा के लिए कितना जरूरी है!

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मणिपुर में तो हाथ के हाथ इसका डिमॉन्स्ट्रेशन भी हो गया। नफरत का पूरा बाजार खुला हुआ है। बाजार खुला ही नहीं हुआ है, अपार भीड़ें खींच रहा है और वह भी आज-कल से नहीं, सात हफ्ते से ज्यादा से। पर राहुल गांधी की मोहब्बत की दुकान, चली क्या? माना कि लोगों ने राहुल गांधी को अपनी बात सुनाई। माना कि सुरक्षा के नाम पर सरकार ने रोका हो तो रोका हो, पर लोगों ने राहुल गांधी को कहीं नहीं रोका। माना कि लोग गले-वले मिले। आंसू-वांसू भी बहे। 1947 के दंगों के टैम के गांधी याद आये। मगर मजाल है, जो उनकी मोहब्बत की दुकान जरा-सी भी चली हो। उल्टे सच्ची बात तो यह है कि नफरत के बाजार में उनकी दुकान से भी, नफरत ही निकली। नफरत के खिलाफ ही सही, पर उनकी दूकान ने भी फैलायी तो नफरत ही। वर्ना इतने दिन से सुरक्षित बने हुए, सीएम बीरेन सिंह को इस्तीफा क्यों देना पड़ता! वो तो भला हो उनके समर्थकों का कि उन्होंने अपनी नफरत इस्तीफे की चिट्ठी ही पर ही निकाली और राज्यपाल तक पहुंचने से पहले, इस्तीफे की चिट्ठी फट-फटाकर कूड़ेदान में पहुंच गयी। वर्ना मणिपुर तो डबल इंजन के रहते भी, एकदम ही अनाथ हो जाता। पीएम बोलेेंगे नहीं और सीएम रहेंगे नहीं, फिर मोहब्बत की दुकान को पब्लिक शहद लगाकर चाटेगी क्या?

जब तक सावरकर जी को राष्ट्रपिता नहीं बनाया जाता है, कोई-न-कोई गांधी का रूप धर कर आता रहेगा। और मोहब्बत की दूकान के नाम पर, नफरत के बाजार में मंदी फैलाता रहेगा। नफरत से कम-से-कम वोट तो मिलता है, क्या मोहब्बत से किसी को कुछ मिला है?

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