(व्यंग्य : राजेंद्र शर्मा)
भाई मानना पड़ेगा कि भगवाधारियों ने पुरस्कार वापसी गैंग का गजब का तोड़ निकाला है। अब देखते हैं, कैसे कोई पुरस्कार वापस करता है और कैसे ये गैंग पुरस्कार वापसी से इस सरकार को शर्मिंदा करता है, जिसे शर्मिंदा करने की कोशिश कर-कर के बड़े-बड़े तीस मारखां हार गए, पर शर्मिंदा नहीं कर पाए और खुद ही शर्मिंदा होकर चले गए। अब सरकार को कोई शर्मिंदा कर जाए, इसका तो कोई चांस ही नहीं है। न मणिपुर, न पहलवान, न सेंगोल की धोखेधड़ी, न भ्रष्टाचारियों की धुलाई की बड़ी वाली वाशिंग मशीन और तो और चीन के राष्ट्रपति से गुपचुप अंडरस्टेंडिंग भी नहीं; छप्पन इंच की छाती वालों को कोई शर्मिंदा नहीं कर सकता। फिर मुट्ठी भर लेखक-कलाकार वगैरह तो आते ही किस गिनती में हैं। सच पूछिए तो पिछली बार भी धोखे से उन्होंने पुरस्कार वापसी कर के बेचारे मोदी जी के राज को शार्मिंदा कर दिया था। पर अब और नहीं। लेखकों-वेखकों के हाथों तो हर्गिज नहीं। पुरस्कार वापसी के गांधीवादी हथियार से तो कभी नहीं।
हम तो मोदी जी के राज की संसदीय कमेटी की दूरंदेशी के कायल हो गए। कमेटी ने सिफारिश की है और सरकार ने उसकी सिफारिश संसद के सामने रख भी दी है कि लेखकों-कलाकारों को पुरस्कार बाद में दिया जाए, पहले उनसे पुरस्कार नहीं लौटाने का शपथ पत्र भरवा लिया जाए। जिससे बाद में बेचारी सरकार की ख्वारी नहीं हो। ऐसा नहीं हो कि सरकार कहे कि मैंने तुझे पुरस्कृत किया और पुरस्कार पाने वाला कहेे कि मुझे आपका पुरस्कार मंजूर नहीं है या उस वक्त पुरस्कार ले भी ले और बाद में पुरस्कार यह कहकर वापस कर दे कि ऐसे सम्मान से तो, मैं बिना सम्मान के ही भला! अब तो इसकी नौबत ही नहीं आएगी। पुरस्कार से भी ज्यादा पुरस्कार देने वाले का सम्मान करने का सतबच्चा भरवाने के बाद ही पुरस्कार देने की घोषणा की जाएगी। आखिरकार, पुरस्कार वापसी, पुरस्कार नहीं, पुरस्कार देने वाले का ही तो असम्मान करने के लिए की जाती है।
फिर भी कुछ लोगों की इस आशंका में भी हमें तो दम लगता है कि हो सकता है कि शपथ पत्र भरवाना भी, पुरस्कार वापसी के खिलाफ पक्की गारंटी नहीं हो। अगर कोई पुरस्कार-वापसी गिरोह वाला शपथ पत्र भर कर पुरस्कार लेने के बाद भी पुरस्कार वापस करने पर तुल गया तो? पर संसदीय कमेटी के सुझाव में जरा सी तब्दीली कर के इसका भी इलाज किया जा सकता है। कोरे शपथ पत्र की जगह, पुरस्कार के हकदार से बांड भरवाया जा सकता है, पुरस्कार से कम से कम दस गुनी रकम का बांड। किसी ने पुरस्कार वापस करने की जुर्रत की तो घर पर कुर्की पहुंच जाएगी। किसी की हिम्मत ही नहीं होगी पुरस्कार वापस करने की।
फिर भी पुरस्कार वापसी के हमले से सौ फीसद बचाव की गारंटी तो बांड भरवाने में भी नहीं है। लेखक-कलाकारों में इक्का-दुक्का तो ऐसे सिरफिरे भी निकल ही आएंगे, जो बांड से भी नहीं रोके जाएंगे। सौ फीसद गारंटी का तो एक ही उपाय है कि जो भी पुरस्कृत किया जाए, बाकी जिंदगी जेल में बिताए। जेल में पुरस्कार रखा तो, और वापस किया तो, देखने वाला ही कौन होगा। एक और उपाय यह है कि पुरस्कार देना बैन ही कर दिया जाएगा, न कोई पुरस्कार देगा और न कोई पुरस्कार वापसी होगी। और अगर यह सब भी संभव न हो, तो कम-से-कम पुरस्कार और सम्मान करने का रिश्ता पक्के तौर पर तुड़वा दिया जाए। पुरस्कार पाने वाले को कम से कम यह गलतफहमी नहीं रहेगी कि उसे सम्मान का हकदार माना जा रहा है। जो पुरस्कार सिर झुकाकर लिया जाएगा, उसे लौटाने के लिए सिर कौन उठाएगा!
(व्यंग्यकार वरिष्ठ पत्रकार और साप्ताहिक ‘लोकलहर’ के संपादक हैं।)