(आलेख मोहम्मद सईद पठान)
देश में बार-बार यह कहा जाता है कि केंद्र सरकार जनता की भलाई के लिए काम कर रही है, कई उपयोगी वस्तुओं पर (GST) दरें घटाई गईं, जिससे उपभोक्ताओं को थोड़ी राहत भी मिली, लेकिन बड़ा सवाल यह है कि पेट्रोल और डीज़ल को अब तक जीएसटी के दायरे में क्यों नहीं लाया गया?
आज उपभोक्ता पेट्रोल-डीज़ल की वास्तविक कीमत से कहीं ज्यादा चुका रहा है। मौजूदा समय में पेट्रोल-डीज़ल पर 50 से 55 प्रतिशत तक टैक्स वसूला जा रहा है। यानी अगर इन ईंधनों को जीएसटी के तहत ला दिया जाए, तो इनकी कीमत आसानी से 50 से 60 रुपये प्रति लीटर तक आ सकती है। सोचिए, जब महंगाई हर तरफ जनता की कमर तोड़ रही है, तब पेट्रोल-डीज़ल सस्ता हो जाए तो उसका सीधा असर बाकी सभी चीजों की कीमतों पर पड़ेगा।
सरकार की मजबूरी या राजनीतिक गणित?
यह सवाल हर नागरिक के मन में है कि आखिर सरकार की क्या मजबूरी है, जो वह पेट्रोल-डीज़ल को जीएसटी में शामिल नहीं करना चाहती। क्या यह सिर्फ राजस्व (Revenue) का मामला है? या इसके पीछे कोई बड़ा राजनीतिक और आर्थिक गणित है? क्योंकि पेट्रोल-डीज़ल से होने वाली टैक्स की कमाई केंद्र और राज्यों दोनों की आय का बड़ा हिस्सा है। लेकिन इसका खामियाजा आम जनता को ही भुगतना पड़ रहा है।
जनता को रहना होगा जागरूक
जनता यह समझ चुकी है कि पेट्रोल-डीज़ल को जीएसटी से बाहर रखकर सीधे उसकी जेब पर चोट की जा रही है। इसे नज़रअंदाज़ करना सरकार की "धोखेबाज़ी" को समर्थन देने जैसा है। अब सवाल यह है कि क्या जनता चुपचाप इस बोझ को झेलती रहेगी? या अपनी आवाज उठाकर सरकार को मजबूर करेगी कि वह इस अन्याय को खत्म करे।
पेट्रोल-डीज़ल सस्ता क्यों जरूरी है?
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इससे मालभाड़ा घटेगा, और रोजमर्रा की वस्तुएं सस्ती होंगी।
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किसानों को खेती-किसानी में बड़ी राहत मिलेगी।
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परिवहन सस्ता होगा और आम आदमी की जेब पर बोझ हल्का होगा।
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महंगाई पर स्वाभाविक रूप से नियंत्रण संभव होगा।
सरकार अगर वाकई ईमानदार है और जनता के हित में सोचती है, तो उसे साहस दिखाना होगा। पेट्रोल-डीज़ल को जीएसटी के दायरे में लाना ही होगा।
जनता की खामोशी ही सबसे बड़ा हथियार है, जिसका फायदा उठाकर सत्ता में बैठे लोग मनमानी कर रहे हैं। अब वक्त है कि हर नागरिक यह सवाल पूछे — क्या आप नहीं चाहते कि पेट्रोल-डीज़ल 50 से 60 रुपये लीटर में मिले?
लेखक मिशन संदेश समाचार पत्र के मुख्य संपादक हैं
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