“धर्म, न्याय और मर्यादा के बीच—जब न्याय के मंदिर में उछला जूता, और संवैधानिक मौन ने खड़े किए कई सवाल”
(आलेख -मोहम्मद सईद पठान)
भारत की न्याय व्यवस्था को सदैव “संविधान की आत्मा” कहा गया है। यहाँ निर्णय भावनाओं से नहीं, साक्ष्यों और विधि के सिद्धांतों से दिए जाते हैं। किंतु जब उसी न्याय के मंदिर में—जहाँ हर शब्द तौला जाता है—एक वकील “सनातन धर्म का अपमान नहीं सहेगा हिंदुस्तान” का नारा लगाते हुए मुख्य न्यायाधीश (CJI) की ओर जूता उछाल देता है, तो यह केवल एक व्यक्ति का आवेश नहीं, बल्कि हमारी लोकतांत्रिक चेतना पर एक गहरी चोट बनकर उभरता है।
बार काउंसिल ऑफ इंडिया ने उस वकील का लाइसेंस निरस्त कर दिया है और उसे देश के किसी भी न्यायालय में वकालत करने से प्रतिबंधित कर दिया गया है। यह निर्णय संस्थागत अनुशासन के पक्ष में अवश्य है, परंतु सबसे बड़ा सवाल अब भी अनुत्तरित है — आखिर उस वकील पर कोई मुकदमा क्यों दर्ज नहीं हुआ? और CJI ने कोई आपराधिक कार्रवाई करने से परहेज क्यों किया? क्या यह “न्यायिक संयम” था, या फिर “संवैधानिक मौन” जिसने समाज में उलझन छोड़ दी?
यह केवल एक न्यायिक घटना नहीं, बल्कि नैतिक और भावनात्मक विमर्श का विषय बन गया है। एक ओर आस्था की रक्षा के नाम पर न्यायालय की गरिमा भंग होती है, दूसरी ओर न्याय के सर्वोच्च पद पर बैठे व्यक्ति का धैर्य और सहिष्णुता भारतीय न्याय दर्शन की आत्मा को उजागर करती है। यही कारण है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी अपने एक्स (ट्विटर) पोस्ट में इस घटना पर गहरा दुःख व्यक्त करते हुए कहा —
“कोर्ट परिसर में उन पर हुए हमले से हर भारतीय क्षुब्ध है। हमारे समाज में ऐसे निंदनीय कृत्यों के लिए कोई जगह नहीं है। न्यायमूर्ति गवई द्वारा प्रदर्शित धैर्य न्याय के मूल्यों के प्रति उनकी प्रतिबद्धता का प्रतीक है।”
प्रधानमंत्री का यह वक्तव्य उस संतुलन का परिचायक है जिसकी आज भारतीय लोकतंत्र को सबसे अधिक आवश्यकता है — जहां कानून अपने सिद्धांतों पर अडिग रहे, परंतु क्रोध और आस्था के टकराव में न्याय का धैर्य न टूटे।
फिर भी सवाल यही रह जाता है — अगर कोई आम नागरिक अदालत में ऐसा कृत्य करता, तो क्या उस पर तुरंत अवमानना या आपराधिक मामला दर्ज नहीं होता? क्या वकील होने के कारण उसे विशेष छूट दी गई?
यह प्रश्न जनता के मन में इसलिए भी गूंज रहा है क्योंकि यह घटना केवल एक व्यक्ति की नहीं, बल्कि व्यवस्था की परीक्षा बन गई है।
भारत में “सनातन धर्म” का अर्थ सदा से सहिष्णुता, संयम और सत्कर्म रहा है। वह धर्म जो कहता है “अहिंसा परमो धर्मः”, उसका अपमान नारा लगाकर नहीं, बल्कि कर्म और आचरण से मिटाया जाता है। सनातन धर्म की रक्षा किसी जूते या आक्रोश से नहीं, बल्कि उसके आदर्शों को जीने से होती है। न्याय के पवित्र स्थल में हिंसक या अपमानजनक व्यवहार उसी सनातन परंपरा की आत्मा के विरुद्ध है, जिसका नाम लेकर यह सब किया गया।
न्यायमूर्ति गवई ने जिस संयम और मौन से इस पूरे घटनाक्रम को संभाला, वह भारत की न्यायिक परंपरा में एक अनुकरणीय उदाहरण है। उन्होंने इस बात का सशक्त संदेश दिया कि “न्याय कभी प्रतिक्रिया नहीं देता, वह केवल समाधान देता है।” उनके धैर्य ने यह सिद्ध किया कि न्यायालय केवल कानून का संरक्षक नहीं, बल्कि सामाजिक संयम का प्रतीक भी है।
इस प्रकरण में बार काउंसिल की कार्यवाही तो एक संस्थागत कदम था, परंतु पुलिस और प्रशासनिक स्तर पर जो चुप्पी रही, वह यह दर्शाती है कि कानून के प्रवर्तन में अभी भी “व्यक्तिगत पहचान” और “संवेदनशील परिस्थितियों” का प्रभाव बना हुआ है। अगर अदालतों की गरिमा को लेकर कोई दोहरा मापदंड अपनाया जाएगा, तो वह न केवल न्यायपालिका की साख को नुकसान पहुंचाएगा, बल्कि जनविश्वास को भी डगमगा देगा।
भारत जैसे विविधतापूर्ण देश में धर्म और न्याय के बीच की दूरी बेहद नाजुक है। जब न्यायालयों में धर्म का स्वर प्रवेश करता है, तो संविधान की आत्मा खतरे में पड़ती है। न्याय केवल आस्था का नहीं, बल्कि तर्क और समानता का प्रतिनिधि है।
इसलिए जब कोई व्यक्ति धर्म की रक्षा के नाम पर कानून की अवमानना करता है, तो वह न तो धर्म की रक्षा करता है, न ही राष्ट्र की।
आज समाज को यह समझने की आवश्यकता है कि “सनातन धर्म का अपमान नहीं सहेगा हिंदुस्तान” — यह नारा तभी सार्थक है जब हम सनातन की मूल भावना—धैर्य, सहिष्णुता और मर्यादा—को जिएं।
वरना यह नारा केवल एक गुस्से की प्रतिध्वनि बनकर रह जाएगा, जो धीरे-धीरे समाज की संवेदनशीलता को कुंद कर देगा।
न्यायमूर्ति गवई का धैर्य और प्रधानमंत्री की प्रतिक्रिया इस दिशा में एक सशक्त संदेश है कि भारत का लोकतंत्र अब भी अपने संयम से मजबूत है। परंतु, यही संयम तभी सार्थक होगा जब हर नागरिक, हर अधिवक्ता और हर संस्था यह समझे कि न्याय का अर्थ केवल फैसला सुनाना नहीं, बल्कि आचरण से उदाहरण प्रस्तुत करना भी है।
निष्कर्ष में कहा जा सकता है:
जूता भले उछला हो, लेकिन इस घटना ने हमारे समाज के सामने यह आईना रख दिया है कि धर्म की रक्षा भावनाओं से नहीं, विवेक से होती है।
और जब विवेक ही धर्म बन जाए — तभी सच्चे अर्थों में सनातन की आत्मा जीवित रहती है।
डिस्क्लेमर:
यह आलेख केवल सामाजिक, संवैधानिक और वैचारिक विश्लेषण के उद्देश्य से लिखा गया है। इसमें व्यक्त विचार किसी संस्था, व्यक्ति या संगठन के प्रति आरोप या समर्थन के रूप में नहीं हैं। सभी सूचनाएँ उपलब्ध सार्वजनिक स्रोतों पर आधारित हैं। पाठ का उद्देश्य संवाद और जागरूकता बढ़ाना है, न कि किसी की भावनाओं को आहत करना।
(लेखक -मिशन संदेश समाचार पत्र के मुख्य संपादक हैं)
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