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लेखक के विचार

आलेख: चालीस चोरों के खजाने के चौकीदारों की दरोगाईन के गरीबी के नखरे

(आलेख : बादल सरोज)

इधर 400 पार का गुब्बारा फुलाने में खुद मोदी जी की साँसें फूली जा रही हैं, उधर उनकी वित्तमंत्राणी ने लोकसभा चुनाव लड़ने से ही पल्ला झाड़ लिया। वे प्याज पहले ही नहीं खाती थीं, अब चुनाव भी नहीं लड़ेंगी । खुद उनने बताया कि उनसे उनके पार्टी अध्यक्ष ने चुनाव लड़ने के बारे में पूछा था, निर्मला ताई के अनुसार इस पूछगछ पर उहोने कोई सप्ताह, दस दिन सोचा-विचारा भी – मगर बाद में ना बोल दिया। इन दिनों गोदी मीडिया के चहेते एंकर-एन्करानियों को दिए जा रहे प्रायोजित इंटरव्यूज में से एक में बोलते हुए उन्होंने यह जानकारी दी। इस वार्तालाप में उन्होंने चुनाव न लड़ने की दो वजहें गिनाईं : एक तो यह कि उनके पास चुनाव लड़ने के लिए पैसा नहीं है। असल में उनका वाक्य था कि उनके पास “उस तरह का पैसा नहीं है।“ दूसरी यह कि उनसे दक्षिण में आँध्रप्रदेश या तामिलनाडू से लड़ने के लिए कहा गया था, चुनाव चूंकि जाति और धर्म के नाम पर लड़े और जीते जाते हैं, इस लिहाज से वहां – विनेबिलिटी – जीतने की संभावनाएं उनके पक्ष में नहीं है। उनके इस कथन के बाद पत्रकारिता के निचले से भी निचले दर्जे के मानदंडों के हिसाब से अगला सवाल होना चाहिए था कि वे किस तरह के पैसे की बात कर रही हैं, मगर अपने वालों से ऐसे-वैसे सवाल नहीं पूछे जाते, सो नहीं पूछा गया!! बहरहाल बिना पूछे-कहे ही भारत की वित्तमंत्राणी ने सार्वजनिक रूप से खुद यह मान लिया है कि मोदी की गारंटी-वारंटी से चुनाव जीतने की बात झूठी है और यह भी कि उनकी पार्टी, ब्रह्माण्ड की सबसे बड़ी पार्टी, चुनाव पैसे से, वो भी ‘उस तरह के पैसे से’ लड़ती हैं और जाति-धरम के समीकरणों के आधार पर ही जीत पाती है। यह एक सचमुच की गंभीर स्वीकारोक्ति है।

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भारत में चुनाव को लेकर जो जनप्रतिनिधित्व क़ानून बना हुआ है, उसमे अलग-अलग स्तर के चुनाव लड़ने वाले प्रत्याशियों के लिए खर्च की अलग-अलग सीमाएं तय की गयी हैं । लोकसभा चुनाव के लिए यह सीमा छोटी सीटों पर 75 लाख रुपए है और बड़ी सीट्स पर 95 लाख रुपए है । इत्ता पैसा तो निर्मला ताई के पास है ही ; दो साल पहले राज्यसभा चुनाव के लिए भरे अपने नामांकन में उन्होंने अपनी कुल संपत्ति कोई ढाई करोड़ रूपये बताई थी। देश में तीन-चौथाई से ज्यादा लोगों के पास इतनी संपदा नहीं होती। मगर बकौल उनके “यह मेरे वेतन, मेरी बचत, मेरी कमाई का पैसा है।“ मतलब यह कि चुनाव लड़ने के लिए जिस तरह का पैसा चाहिए, यह उस तरह का पैसा नहीं है। उनका बयान कुछ इस तरह का आभास दे रहा था, जैसे मोदी सहित बाकी भाजपाई अपना खेत-मकान बेचकर चुनाव लड़ते हैं – पार्टी नहीं लड़ती, व्यक्ति चुनाव लड़ते हैं!! अगर ऐसा ही है, तो फिर ये हजारों करोड़ रुपयों के इलेक्टोरल बांड्स – जिनका नाम ही चुनावी बांड है – क्या दीवाली पर लक्ष्मी पूजा के समय सजाने के लिए इकट्ठा किये गये हैं? बिना बांड्स के भी उनकी पार्टी ने हजारों करोड़ रूपये और जुटाए हैं, जिनमें से करीब चार हजार करोड़ रुपयों की प्राप्ति उसने अपने आधिकारिक हिसाब में दर्ज की है। ये सारी रकम चुनाव के लिए नहीं है, तो फिर किस काम के लिए है? दस वर्षों के अपने कार्यकाल में हर जायज-नाजायज तरीके से अकूत धन संपदा इकट्ठा करने वाली ब्रह्माण्ड की सबसे भ्रष्ट पार्टी की वित्तमंत्राणी का यह दावा निरे पाखंड के साथ-साथ इन दिनों बेईमानियों, भ्रष्टाचार, काली कमाई में अपनी परसेंटेज वसूलने के लिए केन्द्रीय जांच एजेंसियों के माध्यम से ब्लैकमेलिंग तक के आरोपों से घिरी भाजपा की निर्वसनता को छुपाने के लिए बयानों की झीनी आड़ उपलब्ध कराने की चतुराई है।

ध्यान रहे, यह बात उस पार्टी की सरकार की वित्तमंत्राणी बोल रही है, जिसने भारत के संसदीय लोकतंत्र को खोखला बनाने के साथ उसे अत्यंत “मूल्यवान” भी बना दिया है । नवउदारीकरण के जमाने से चुनावों में पैसे के दखल के बढ़ने की जो शुरुआत हुयी थी, उसे उसके चरमोत्कर्ष पर पहुंचाते हुए हर स्तर के चुनाव को एक ऐसे जुआघर में बदल दिया है, जिसमें जिसके पास जितनी ज्यादा काली कमाई होगी, उसके जीतने की संभावनाएं उतनी ही अधिक होंगी। इसमें भी सत्ता में रहने के 10 वर्षों में सारा राजनीतिक संतुलन इतना एक पक्षीय कर दिया है, जिसमे अब भरपूर जनाधार वाली पार्टियों के लिए भी मतदाताओं तक अपनी बात तक पहुंचाना नामुमकिन-सा हो गया है। इन्ही वित्तमंत्राणी के अधीन आने वाले इनकम टैक्स और ईडी जैसे विभागों ने विपक्षी राजनीतिक दलों को निशाने पर लेकर न सिर्फ उन्हें मिलने वाले आर्थिक सहयोग को बाधित किया, बल्कि उनके अपने संचित कोष को भी जब्त करके सामान्य चुनाव अभियान चलाना तक मुश्किल बना दिया। लोकसभा चुनाव के ठीक पहले, चुनाव अधिसूचना जारी होने के बाद, देश की प्रमुख विपक्षी पार्टी कांग्रेस के बैंक खातों को जब्त करना और बिना समुचित प्रक्रिया का पालन किये उस पर कई हजार करोड़ की पेनल्टी लगा देना इसी तरह के काम हैं। भारत के सर्वोच्च न्यायालय द्वारा अवैधानिक करार देकर रद्द और प्रतिबंधित किये गये चुनावी बांड्स इसी तरह का एक और घपला है। जिन्हें किसी भी तरह पूर्वाग्रही या विरोधी नहीं कहा जा सकता, ऐसे अर्थशास्त्री परकला प्रभाकर के अनुसार बांड काण्ड को सिर्फ भारत का सबसे बड़ा घोटाला कहना पर्याप्त नहीं है, यह दुनिया का सबसे बड़ा स्कैम – काण्ड – है। इन्होंने इसकी जिम्मेदारी तय करने और चुनावों में भाजपा को सजा देने की बात भी कही है। अपने को ईमानदार बताने वाली निर्मला सीतारमण इस घोटाले से अनभिज्ञ या निर्लिप्त होने का दावा नहीं कर सकतीं। आखिर वे भारत के वित्त मंत्रालय की मुखिया है, चालीस चोरों के खजाने के चौकीदारों की दरोगाईन नहीं हैं।

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पिछले 10 साल में अपने गरीब के गरीब बने रहने का दावा करने वाली इन्हीं वित्तमंत्राणी जी का कार्यकाल रहा है, जिसमें उनकी पार्टी के नेताओं ने चमत्कारी रफ़्तार से अपनी रईसी बढ़ाई है। इनके नेता अमित शाह के पुत्र जय शाह की कंपनी की संपत्ति एक साल में ही 50 हजार रूपये से बढ़कर 80 करोड़ 50 लाख हो जाने का एक उदाहरण काफी है। दो-दो, ढाई-ढाई घंटे लम्बे बजट भाषणों में सफेदी की चमकार दिखाने के लिए आभासीय आंकड़ों के पहाड़ खड़े करने वाली निर्मला जी को अपने 10 सालों के कारनामों के नतीजे भी याद होंगे है। उन्हें याद होगा कि उनके परताप से इस बीच डॉलर अरबपतियों की तादाद 55 से 5 गुना से भी ज्यादा बढ़कर 271 हो गयी। बैंकों के साथ धोखाधड़ी 17 गुना बढ़ गयी । मुश्किल से एक प्रतिशत वाले अति-रईसों ने देश की 40 प्रतिशत दौलत कब्जा ली है, जबकि देश की आधी आबादी के हिस्से में 0.1 प्रतिशत भी नहीं बचा । अपनी ईमानदारी के पाखंड और गरीबी के स्वांग से हमदर्दी बटोरने की कोशिश करने से पहले उन्हें इनकी जिम्मेदारी भी लेनी चाहिए। वे कारपोरेट मामलों की मंत्राणी भी हैं ; वही कार्पोरेट्स, जिनके मुनाफों की दलदल में पूरा देश डुबो दिया गया है। उनकी कर्ज माफी, टैक्सो में कमी, डूबंत पैसे की अदायगी के हेअरकट सौदों ने मुल्क की जनता और अर्थव्यवस्था दोनों की हजामत बनाकर रखी हुई है। इनको गिनाएंगे, तो सुबह हो जायेगी, तब भी पूरे नहीं होंगे। प्याज न खाने और चुनाव न लड़ने वाली निर्मला ताई के कार्यकाल में दरबार के यारों अडानी और अम्बानी जैसों की जो पौ-बारह हुई है, उसकी तो दुनिया भर के पूँजीवाद के इतिहास में कोई मिसाल ही नहीं है। नीरव मोदियों, मेहुल चौकसियों, विजय माल्याओं द्वारा बैंकों को लगाया गया चूना, लूट समेट कर भारत की नागरिकता छोड़ने वाले 12 लाख मान्यवरों की गिनती इसमें शामिल नहीं है । “उस तरह का पैसा” असल में “इस तरह का पैसा है”, जिसमें उनकी पार्टी का हिस्सा है ।

अपने कबूलनामे से निर्मला सीतारमण ने न केवल अपनी पार्टी की “उस तरह के पैसे” पर निर्भर असलियत उजागर कर दी है, बल्कि उस मुखौटे को भी तार-तार कर दिया है, जिसे जनता द्वारा चुने जाने, 140 करोड़ भारतीयों का प्रतिनिधि होने के दावों के रूप में धारण किया जाता रहा है। किस तरह के पैसे से जीता जाता है, जीते-जिताओ को खरीदा जाता है, यह बताने के साथ उन्होंने यह भी बता दिया कि इस तरह के पैसे को बिना उनके नहीं जुटाया जाता। इस सबके बाद भी इतना कातर बनने की वजह शायद यह भी है कि वे इस बार 400 पार के नारे का जो हश्र होने वाला है, उसे भांप चुकी हैं।

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मजेदार बात यह है कि इधर वे “उस तरह का पैसा” न होने का दावा कर अपने आपको धवल और निर्मल बताने की चेष्टा कर रही थीं, उधर उनके नेता प्रधानमंत्री इस तरह के पैसे को शुद्ध और पवित्र बनाने के लिए अपनी सारी वाकपटुता झोंके जा रहे थे। मेरठ की सभा में खुद को भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ने वाला योद्धा बताते हुए ‘चोर मचाये शोर’ के मुहावरे को अमल में ला कर दिखा रहे थे। जिन इलेक्टोरल बांड्स को लेकर पूरी दुनिया उनकी पार्टी और सरकार पर थू-थू कर रही हो, जब हर रोज इस बांड काण्ड की एक नई जानकारी सामने आ रही हो, जिससे पता चल रहा हो कि भारतीय नागरिकों की जिन्दगी से खिलवाड़ करने वाली गलत दवाएं बेचने वाली कम्पनी से भी सैकड़ों करोड़ वसूले गए हैं, कि टैक्स के छापों के बाद मामले सुलटाने के लिए हिस्सा बाँट के सौदे किये गए हैं ; और तो और, जिस शराब काण्ड के सरगना के कहे को आधार बनाकर दिल्ली के मुख्यमंत्री केजरीवाल और उनके मंत्रिमंडल के 3 सदस्य जेल में डाले गए, उसे खुद मोदी जी ने लोकसभा का टिकिट देकर अपनी पार्टी का उम्मीदवार बना रहे हों ; जब राफेल सौदे को लेकर खुद राफेल बनाने वाले देश में नए खुलासे हो ही रहे हों, इसके बाद भी खुद को भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ने वाला बताना मोदी के लिए ही मुमकिन है।

ऐसी ही अहंकारी दीदादिलेरी उन्होंने इससे दो दिन पहले तामिलनाडु के एक टीवी चैनल के साथ की गयी अपनी “बातचीत” में दिखाई, जब चुनावी बांड्स के घोटाले के उनकी पार्टी पर संभावित असर के बारे में पूछे गए सवाल के जवाब में उन्होंने न सिर्फ उस योजना का बचाव किया, जिसे सुप्रीम कोर्ट असंवैधानिक और धोखाधड़ी पूर्ण करार देकर प्रतिबंधित तक कर चुका है, बल्कि अब आपराधिक बताई जा चुकी योजना को लाने के लिए खुद को श्रेय भी दिया। हालांकि इस फुल-कांफिडेंस के दिखावे के बाद भी उन्हें पता था कि यह काण्ड बहुत महंगा पड़ने वाला है, इसलिए तिलमिलाहट भी थी ; एक ही सांस में इस बेईमानी का पर्दाफ़ाश करने और इसका हिसाब मांगने वालों को धमका भी रहे थे कि “आज जो इस को (इलेक्टोरल बांड्स) को लेकर नाच रहे है, कल वे पछतायेंगे।“

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“उस तरह के पैसे” का भांडा फूटने के बाद चुनावों को लेकर घबराहट सिर्फ निर्मला सीतारमण या एस जयशंकर में ही नहीं है, खुद इनके ब्रह्मा जी भी बिल्लियाये हुए हैं। यह अब उनके हावभाव और बतकहाव सब में दिखने लगा है। उनकी एकमात्र योग्यता उनका मुंहबली होना है – भाषण कला में दक्ष और निपुण होना माना जाता है। घोटालों, कांडों और जनजीवन की बर्बादी के जोड़ से उभरे जनाक्रोश और उसे मुखर बनाते विपक्ष के बढ़ते जोर के चलते अब उसमें भी उनकी हांफनी भरने लगी है। मेरठ की सभा की शुरुआत में ही उनका सरोदा बिगड़ा हुआ दिखा। चौधरी चरण सिंह को भारत रत्न देने के दूसरे ही दिन चौधरी साहब पर किये अपने “उपकार” का अहसान जताने और उसे लोकसभा चुनाव के वोटों के रूप में भुनाने के लिए मोदी ‘गए तो हरिभजन को थे, मगर ओटन लगे कपास’ ; मेरठ की सामाजिक बुनावट और पिछले कुछ समय सायास पैदा किये गए तनाव की पृष्ठभूमि के हिसाब से उन्होंने अपने वे ही काम गिनाये, जिनसे उन्हें लगता है कि ध्रुवीकरण तेज होगा। चौधरी साहब की तस्वीर के पीछे छुपकर देश के किसानों और हाल के उनके किसान आन्दोलन के साथ किये गए अपने पापों और अपराधों पर पर्दा डालने की कोशिश की । वक्तृत्व कला फिर भी निखार पर नहीं आयी, तो उसे साधने और समेटने के फेर में एक के बाद एक झूठों और अर्धसत्यों की बौछार करते रहे।

वित्त मंत्राणी का चुनाव लड़ने से इनकार करना, कोई आधा दर्जन घोषित भाजपा उम्मीदवारों का अपना टिकिट लौटाना, मीडिया और सभी नाम-अनाम एजेंसियों के दल-के-दल साथ होने के बावजूद प्रधानमंत्री का हड़बड़ाना अनायास नहीं है, यह दीवार पर लिखी उस इबारत को पढ़ लेने का नतीजा है, जिसमे सत्ता से विदाई का एलान साफ़-साफ़ शब्दों में दर्ज है। बशर्ते आने वाले सप्ताहों में इन हरूफों को और चमकीला बनाने में पूरी ताकत लगाई जाए। लोग समझ चुके हैं कि मोदी और उनकी भाजपा को हराना जरूरी भी है, मुमकिन भी है।

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(लेखक पाक्षिक ‘लोकजतन’ के संपादक तथा अखिल भारतीय किसान सभा के संयुक्त सचिव हैं।

उपरोक्त आलेख लेखक के अपने निजी विचार हैं, एडमिन, एडिटर,का सहमत होना अनिवार्य नहीं

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