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लॉकडाउन में पैदल लौटे 13 लाख प्रवासियों के पैर के छाले तो मिट गए, दाग अब तक नहीं मिटे है.. आखिर इनका वोट किसे

लखनऊ । कोविड की पहली लहर में लॉकडाउन तो पूरी दुनिया में लगा, प्रवासियों के हाईवे पर पलायन की तस्वीरें हालांकि सिर्फ भारत में ही नजर आए। इनमें भी यूपी के पूर्वांचल की बड़ी आबादी थी। एक वायरस के खौफ और बेरोजगारी की मार ने सैकड़ों किमी की पैदल यात्रा लोगों से कराई।

कंधे पर गृहस्थी का बोझ, भूखे-प्यासे बदहवास, बूंद-बूंद पानी को तरसते लोग किसी तरह अपने गांव पहुंचे थे। मीडिया रिपोर्ट के अनुसार लॉकडाउन के पहले 50 दिन में उत्तर प्रदेश में 13.50 लाख लोग मुंबई से लौटे थे। दैनिक भास्कर ने ऐसे गांवों में जाकर देखा कि अब वे लोग क्या कर रहे हैं? क्या वापस मुंबई लौट गए हैं…

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अगर नहीं तो चुनाव में उनका रुझान किधर है…..

लोग सैकड़ों किमी चलकर अपने गांव पहुंचे। वहां भी रोजगार नहीं है। -फाइल फोटो
लोग सैकड़ों किमी चलकर अपने गांव पहुंचे। वहां भी रोजगार नहीं है। -फाइल फोटो

 

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90 फीसद लोग मुंबई वापस लौटे

कीड़ों-मकोड़ों की तरह ट्रक, गाड़ियों, ऑटो में लदकर अपने गांव पहुंचे इन लोगों ने सड़कों पर उठक-बैठक लगाते हुए कहा था कि अब कभी मुंबई नहीं आएंगे। राज्य सरकार ने भी वादा किया था कि अब प्रदेश से किसी को कमाने के लिए बाहर नहीं जाना पड़ेगा।

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दैनिक भास्कर इनके घरों में फिर पहुंचा तो पता चला कि यहां के 90 फीसदी लोग मुंबई लौट चुके हैं। सरकारी वादे की हकीकत ये रही कि किसी को कोई रोज़गार नहीं मिला। जो 10 फीसदी लोग यहां रह गए हैं, वे भी जाने की फिराक में हैं। वोट देने का इंतजार कर रहे। कुछ को नेताओं ने बाकायदा टिकट भेजकर बुलाया है, कुछ वापसी के टिकट के इंतजार में हैं।

मुंबई में थे तो खर्च निकालने के बाद 5-10 हजार घर भी भेज दिया करते थे

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दिल्ली, मुंबई में ऐसे दृश्य आम हुए थे। लोग अपने घर लौटना चाहते थे, लेकिन मदद नहीं मिली थी। - फाइल फोटो
दिल्ली, मुंबई में ऐसे दृश्य आम हुए थे। लोग अपने घर लौटना चाहते थे, लेकिन मदद नहीं मिली थी। – फाइल फोटो

 

कोविड की उस लहर में अकेले सिद्धार्थनगर में लगभग 3 लाख प्रवासी मुंबई से घर लौटे थे। सिद्धार्थनगर, बस्ती, गोंडा, श्रावस्ती, संतकबीरनगर और जौनपुर को जोड़ लिया जाए तो यहां की आर्थिकी की रीढ़ मुंबई ही है। जिला बस्ती के खलीलाबाद इलाके में रहने वाले अजहरुद्दीन बताते हैं, ‘मैं मुंबई की एक गारमेंट फैक्ट्री में काम करता था। हर महीने अपने खर्च निकालने के बाद 10 हजार रुपए घर भी भेज दिया करता था।

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अब यहां-वहां मजदूरी करके खाते हैं। एक वक्त का मिल गया तो दूसरे वक्त का पता नहीं मिलेगा या नहीं।’ वह कहते हैं कि वह मुंबई इसलिए नहीं लौटे क्योंकि यूपी सरकार ने वादा किया था कि यहां रोज़गार देगी। हालांकि, अब उन्हें मुंबई लौटना ही होगा, यहां गुज़ारा नहीं हो रहा है।

वादे के मुताबिक रोजगार के इंतजार में लोग चले गए मुंबई

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इस गांव में हर तीसरे घर से मुंबई के लिए जाने वाले लोग हैं। सिर्फ 2 फीसदी ही गांव में रह रहे हैं, बाकी सब लोग चले गए हैं। यहां रह गए लोगों का कहना है कि वह सरकार के वादे के सहारे यहां रह गए। लेकिन अब वे लोग लौटेंगे। यहां अगर कोई छोटा-मोटा भी काम मिल जाए तो क्यों जाएं? मुंबई में मकान का भाड़ा और भी देना पड़ता है। यहां कम से कम मकान का भाड़ा नहीं है। सरकार की ओर से राशन भी मिल ही जाता है।

यहां के डुमरियागंज कस्बे की बात करें तो 15 से 20 गांवों में आधे घरों में ताला लगा हुआ है। ऐसे ही इटवा के गांव पीपरी के एक ताला लगे घर के केयरटेकर बताते हैं कि गांव के लगभग 10-15 घरों में ताला लगा हुआ है। इनका कहना है कि खाने-कमाने सब लोग मुंबई चले गए।

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यहां कोई इंडस्ट्री डेवलप हो जाती तो रोजगार भी पा लेते

मुंबई से लौटे जो भी लोग यहां रह गए हैं, वे या तो मज़दूरी कर रहे हैं या अपने खेत में काम कर रहे हैं। वे लोग मुंबई जाने की तैयारी में हैं। यहां के कस्बे बिशनपुर के गांव दुंबदुंबवा के रहने वाले शिवचरण बताते हैं कि वह मुंबई में रहते हुए हर महीने 5,000 रुपए घर भेज देते थे। वह अपने एक बीघा खेत में खेती कर रहे हैं। कहते हैं कि मुंबई जाएंगे नहीं तो यहां भूखे मर जाएंगे। इनके साथ मुंबई रहने वाले हसन हर महीने 10 हज़ार अपने घर भेजा करते थे।

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वह बताते हैं कि वह मुंबई से पैदल चलकर अपने गांव पहुंचे थे। अब दो साल से यहां वहां घूम रहे हैं। मज़दूरी कर रहे हैं। पहले वह अच्छा खाते पीते थे, घर भी पैसे भेजते थे। मुंबई से पैदल चलकर उत्तर प्रदेश के पूर्वांचल पहुंचने वाली बड़ी आबादी की गुड्डू तिवारी ने मदद की थी। तिवारी के अनुसार अब लगभग 90 फीसदी लोग मुंबई जा चुके हैं। यहां कोई रोज़गार और धंधा नहीं है। बीते 50 सालों से यहां और आसपास के इलाके में कोई इंडस्ट्री नहीं लगी।

वोटिंग पर पांव के छाले और जख्म हावी हो सकते हैं…

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हाईवे पर कई दिन पैदल चलकर आने वालों के पैरों में छाले पड़ गए थे। - फाइल फोटो
हाईवे पर कई दिन पैदल चलकर आने वालों के पैरों में छाले पड़ गए थे। – फाइल फोटो

यहां तक कि गुरुवार को यहां होने वाली वोटिंग पर भी पांव के छाले और जख्म हावी रहेंगे। इसी गांव के एक प्रवासी बताते हैं कि यहां जो अच्छा दिखाई दे रहा है, वो मुंबई का है। लॉकडाउन में बहुत मुसीबत सहकर लौटे हैं। कई दिन पैदल चले हैं। खाना नहीं.. पीना नहीं। हम लोग कुल 45 लोग थे। बैठने की जगह नहीं थी। सभी की तबीयत खराब हो गई। यहां लौटकर अलग नौटंकी हुई।

सरकार ने किसी को गांव के अंदर नहीं आने दिया। बोला कि आधार जमा करवाओ। बैंक का पासबुक जमा करवाओ। राशन आएगा। पैसा आएगा, लेकिन कुछ नहीं आया। वह कहते हैं कि वोट करते हुए मुझे मेरे ज़ख्म याद रहेंगे। कोई वोट मांगने आया तो दरवाज़े से भगा दूंगा। मुंबई से मरकर आए लेकिन यहां भी न खाना, न पानी।

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नेता बड़े निकले, बड़ी इंडस्ट्री नहीं निकल सकी

इस इलाके से कई बड़े नेता रहे। भाजपा सांसद जगदंबिका पाल ,समाजवादी पार्टी के नेता माता प्रसाद पांडे, प्रदेश और केंद्र में हर सरकार में यहां के नेताओं की अहम भागीदारी रही है बावजूद इसके यहां कभी कोई बड़ी इंडस्ट्री नहीं लगी। हाल ही में महाराष्ट्र में शिवसेना-कांग्रेस गठबंधन के पर्यावरण मंत्री आदित्य ठाकरे ने डुमरियागंज में एक राजनीतिक सभा को संबोधित करते हुए कहा कि यहां की बड़ी आबादी मुंबई में निवास करती है, लोग यहां से कमाने के लिए मुंबई जाते हैं और मैं मुंबई से यहां आया हूं, यहां भी ऐसे उद्योग स्थापित किए जाने चाहिए ताकि लोग यहां रहकर कमा सकें।

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तराई के इस इलाके का आर्थिक आधार या तो मुंबई है या फिर गेंहू और धान की खेती। यहां धान की एक किस्म पाई जाती है जिसे काला नमक चावल कहते हैं। प्राकृतिक तौर पर यह बहुत पौष्टिक और शुगर फ्री चावल माना जाता है। इसे लेकर सरकार ने कई दफा योजना बनाई तो ज़रूर लेकिन सिरे नहीं चढ़ा पाई।

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