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Editorial/संपादकीयजनता के विचार

बड़े मियां तो बड़े मियां, छोटे मियां सुभानअल्लाह

(आलेख : राजेंद्र शर्मा)

पुरानी कहावत है कि मिट्टी की हांडी तो गयी, पर कुत्ते की जात का पता चल गया। इस साल के आखिर में होने जा रहे गुजरात के विशेष रूप से महत्वपूर्ण चुनाव के नतीजों पर, इस चुनाव में आप पार्टी सुप्रीमो, अरविंद केजरीवाल के नेतृत्व में, इस पार्टी के अपनी पूरी ताकत झोंक देने का क्या और किस हद तक असर पड़ेगा, इस पर तो अलग-अलग रायें हो सकती हैं, लेकिन यह निर्विवाद है कि अभी जबकि चुनाव की तारीखों की घोषणा अभी-अभी हुई है, आप पार्टी के मूल चरित्र का एक बहुत ही महत्वपूर्ण पहलू उजागर भी हो चुका है। यह पहलू है, संघ-भाजपा के बहुसंख्यकवादी मंच के सामने समझौते करने या उसके आगे समर्पण ही कर देने से भी आगे बढक़र, उसको उसी के मैदान में पछाडऩे की, उससे बढक़र बहुसंख्यकवादी बनकर दिखाने की, होड़ करने की तत्परता का।

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याद रहे कि आप पार्टी के सुप्रीमो ने अब इसमें भी किसी संदेह या दुविधा की गुंजाइश नहीं छोड़ी है कि यह सिर्फ बहुसंख्यक हिंदू समुदाय का ‘‘अपना’’ बनकर दिखाने भर की होड़ का मामला नहीं है। यह बाकायदा बहुसंख्यकवादी सांप्रदायिकता का चैंपियन बनने की होड़ का मामला है, जिसकी पहचान मुस्लिम अल्पसंख्यकविरोधी चेहरा दिखाकर, हिंदू बहुसंख्यकों को गोलबंद करने की कोशिशों से होती है। समान नागरिक संहिता या कॉमन सिविल कोड की मांंग के लिए अपने समर्थन का बाकायदा एलान करने के जरिए, अरविंद केजरीवाल ने उक्त होड़ के लिए, अपना मुस्लिम अल्पसंख्यकविरोधी चेहरा आगे कर दिया है।

यह तो किसी से छुपा हुआ नहीं है कि तथाकथित समान नागरिक संहिता या कॉमन सिविल कोड का मुद्दा भारत में हमेशा से, अपनी अल्पसंख्यकविरोधी धार के लिए ही जाना जाता रहा है। इसीलिए, हैरानी की बात नहीं है कि चुनाव आयोग द्वारा अंतत: चुनाव की तारीखें घोषित किए जाने से पहले के अपने संभवत: आखिरी उद्ïघाटन-विमोचन-घोषणा दौरे पर, प्रधानमंत्री मोदी के गुजरात में पहुंचने से ठीक पहले ही, भाजपा सरकार के मंत्रिमंडल की बैठक में समान नागरिक कानून बनाने का फैसला कर लिया गया और इसके लिए हाई कोर्ट के एक सेवानिवृत्त न्यायाधीश की अध्यक्षता में, एक कमेटी बनाने का एलान कर दिया गया। याद रहे कि भाजपा कोई पहली बार ऐसा नहीं कर रही थी। खुद नरेंद्र मोदी की ही छात्रछाया में, इससे पहले उत्तराखंड में भी चुनाव से ऐन पहले, समान नागरिक कानून के लिए कदम उठाने का ऐसा ही एलान किया गया था।

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बहरहाल, गुजरात के मामले में नयी बात हुई कि इस बार आप पार्टी, इस मामले में भी भाजपा से होड़ लेने के लिए मैदान में कूद पड़ी। याद रहे कि उत्तराखंड के चुनाव में भी आप पार्टी गुजरात की तरह ही लंबे-चौड़े दावों के साथ और मुख्यमंत्री पद के अपने उम्मीदवार के एलान के साथ, पूरे जोर-शोर से चुनाव में कूदी थी, फिर भी तब तक वह समान नागरिक संहिता के मामले में भाजपा से होड़ लेने से दूर रहना ही बेहतर समझ रही थी। बहरहाल, अब गुजरात चुनाव की पूर्व-संध्या में वह इस मामले में भी भाजपा से होड़ लेने के लिए ताल ठोक रही है। बेशक, केजरीवाल ने इस मामले में भी भाजपा की नीयत सच्ची नहीं होने का आरोप लगाया और कहा कि ‘‘अगर इन (भाजपा) की नीयत समान नागरिक संहिता बनाने की है, तो वे इसे पूरे देश में लागू क्यों नहीं करते? लोकसभा चुनाव का इंतजार कर रहे हैं क्या?”, आदि-आदि। लेकिन, आप सुप्रीमो यह कहकर इस मुद्दे को अपने चुनाव प्रचार का हथियार बनाने तथा इसके क्रम मेंं अप्रत्यक्ष रूप से समान नागरिक संहिता कानून बनाने का अनुमोदन करने तक ही नहीं रुक गए कि, ‘‘आप को समान नागरिक संहिता लागू करना ही नहीं है, आपकी नीयत खराब है।’’ इससे आगे बढक़र उन्होंने यह भी एलान किया कि, ‘‘समान नागरिक संहिता बनाना सरकार की जिम्मेदारी है। सरकार को समान नागरिक संहिता बनानी चाहिए।’’

यह किसी से छुपा हुआ नहीं है कि समान नागरिक संहिता का मुद्दा शुरू से संघ परिवार के केंद्रीय या कोर मुद्दों में रहा है, जिन्हें वह अपनी मूल पहचान के मुद्दे मानता है। बहरहाल, उसके अलावा भी बहुसंख्यकवाद की अपनी पैरोकारी को छुपाने के लिए, तरह-तरह की झूठी-सच्ची दलीलों से समान नागरिक संहिता की पैरवी करने वालों को भी, दो-टूक तरीके से यह कहना कभी मंजूर नहीं होता है कि विवाह, उत्तराधिकार आदि के मामलों से हिंदू, मुस्लिम, ईसाई आदि, सभी पर्सनल कानूनों की जगह पर, तमाम धार्मिक विधि-निषेधों से ऊपर, बराबरी के जनतांत्रिक दावों पर आधारित समान नागरिक संहिता की जरूरत है। और कहने की जरूरत नहीं है कि ऐसी कोई जनतांत्रिक जरूरत तो जनतांत्रिक तरीके से यानी जनजागरण के जरिए, उक्त निजी कानूनों की जगह पर, ऐसे जनतांत्रिक समान निजी कानून की जरूरत जनता से मनवाने, उसे ऐसे कानून के पक्ष में करने के जरिए ही, पूरी की जा सकती है। इसके उलट, समान नागरिक संहिता के मुद्दे को आम तौर पर अल्पसंख्यकविरोधी तथा खासतौर पर मुस्लिमविरोधी गोलबंदी का हथियार बनाना, ठीक इसी की मांग करता है कि इसे मुस्लिमविरोधी हथियार के रूप में भांजा जाए या इसके थोपे जाने के जरिए, मुसलमानों की चूड़ी टाइट करने का, बहुसंख्यकवादी कतारों को आश्वासन दिया जाए! यही खेल है, जिसमें भाजपा को टक्कर देने के लिए, अब केजरीवाल ने अपनी आप पार्टी को उतार दिया है।

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यह भी याद रहे कि आप पार्टी इस होड़ में उस गुजरात में उतरी है, जिसने 2002 के आरंभ में आजादी के बाद का सबसे बड़ा और सबसे प्रत्यक्ष रूप से शासन अनुमोदित, मुस्लिमविरोधी नरसंहार देखा था। बेशक, यह भी याद रखा जाना चाहिए कि उस नरसंहार के ही बल पर कथित ‘हिंदू हृदय सम्राट’ बनकर उभरे और अपने इसी चेहरे का, ‘कारपोरेट हृृदय सम्राट’ के चेहरे से योग कायम कर, उस नरसंहार के बारह साल बाद भारत के प्रधानमंत्री के पद पर पहुंचे तथा अब तक खुद को लगभग चक्रवर्ती सम्राट के रूप में स्थापित कर चुके, नरेंद्र मोदी की खड़ाऊं से बल्कि कहना चाहिए कि स्वयं मोदी से ही, आप सुप्रीमो केजरीवाल का, बहुसंख्यक सांप्रदायिकता के मैदान में यह मुकाबला होना है। इस मुकाबले में क्या नतीजा आ सकता है, इसका अनुमान लगाना ज्यादा मुश्किल नहीं होना चाहिए। फिर भी, चुनावी नतीजे की अटकलों में न जाकर, यहां हम सिर्फ इतना रेखांकित करना चाहेंगे कि हिंदुत्ववादी सांप्रदायिकता की दुहाई का सहारा लेने के मैदान में, आप सुप्रीमो केजरीवाल, भाजपा सुप्रीमो नरेंद्र मोदी से होड़ ले रहे हैं। और यही चीज है, जो केजरीवाल और उनकी आप पार्टी को, कांग्रेस समेत तमाम विपक्षी सत्ताधारी वर्गीय पार्टियों से भी अलग कर देती है। चुनावी सफलता मिलना-न मिलना अपनी जगह, केजरीवाल की आप पार्टी विकल्प के नाम पर, मोदी की भाजपा की हिंदुत्ववादी सांप्रदायिकता का, हिंदुत्ववादी सांप्रदायिक विकल्प ही पेश करने की कोशिश कर रही है, जो कोई विकल्प ही नहीं है।

जाहिर है कि केजरीवाल की आप पार्टी ने हिंदुत्ववादी सांप्रदायिकता के मैदान तक की अपनी यह यात्रा कोई एक झटके में या अचानक ही तय नहीं की है। उसने यह यात्रा धीरे-धीरे तय की है। ‘‘लोकपाल कानून’’ की मांग को लेकर चले जिस भ्रष्टाचारविरोधी आंदोलन की कोख से एक राजनीतिक नेता के रूप में केजरीवाल तथा उनकी आम आदमी पार्टी का जन्म हुआ था, पर्दे के पीछे से उसके आरएसएस के साथ रिश्तों की कहानी अब काफी हद तक सामने आ चुकी है। लेकिन, उसकी अर्थव्यवस्था पर कारपोरेट नियंत्रण तथा भ्रष्टाचार से उसके रिश्तों से लेकर, बढ़ती सांप्रदायिकता तक पर मुखर चुप्पियों की सचाई तो, तब भी एक खुला राज थी। बाद में दिल्ली में, आम तौर पर भाजपा-समर्थक जनाधार के एक बड़े हिस्से की ‘‘स्थानीय पसंद’’ के रूप में मुख्यमंत्री पद पर पहुंचने के साथ ही केजरीवाल ने, तथाकथित हिंदू भावनाओं-संवेदनशीलताओं का वीटो, बिना किसी ना-नुकुर के स्वीकार कर लिया।

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लेकिन, केजरीवाल की आप पार्टी इतने पर ही नहीं रुकी। मोदी के विरोध के अपने सारे प्रदर्शन के बावजूद, पहले जेएनयू के छात्र नेताओं व आम तौर पर छात्र आंदोलन के खिलाफ सरकार की दमनकारी कार्रवाइयों से लेकर संघ परिवार की सडक़ हिंसा तक पर, केजरीवाल ने न सिर्फ चुप्पी साधे रखी, बल्कि आगे चलकर, जेएनयू के वामपंथी छात्र नेताओं के खिलाफ राजद्रोह के सरासर फर्जी मामले चलाने के लिए भी, उनकी सरकार ने इजाजत दे दी। और आगे चलकर, सीएएविरोधी प्रदर्शनों तथा खासतौर पर शहीनबाग के ऐतिहासिक प्रदर्शन और इन प्रदर्शनों के खिलाफ मोदी-शाह सरकार की दमनलीला के खिलाफ केजरीवाल सरकार और आप पार्टी ने, दिल्ली के चुनावों तक बाकायदा चुप्पी ही साधे रखी।

और चुनाव के नतीजे आने के चंद हफ्तों में ही, सीएएविरोधी प्रदर्शन के विरोध के नाम पर, संघ द्वारा प्रायोजित हिंसा तथा पूर्वी दिल्ली के दंगों के समय भी, केजरीवाल सरकार और आप पार्टी ने आम तौर पर चुप्पी ही नहीं साधे रखी, बल्कि दंगों में हुए नुकसान की क्षतिपूर्ति के मामले में, मुसलमानों के साथ बाकायदा भेदभाव भी बरता। इसी बीच, खासतौर पर 2020 के चुनाव में पहले से कम बहुमत से जीत के बाद, केजरीवाल और उनकी पार्टी ने बाकायदा भाजपा के हिंदुत्ववादी ‘‘जय श्रीराम’’ के नारे का जवाब ‘‘जय हनुमान’’ के नारे से देने का बहुसंख्यकवादी खेल शुरू कर दिया था। इससे पहले ही केजरीवाल ‘‘श्रवण कुमार’’ बनकर, बुजुर्गों को तीर्थयात्रा कराने की योजना शुरू कर चुके थे! अचरज नहीं कि गुजरात के चुनाव प्रचार के लिए इस सिलसिले को बाकायदा इसकी मांग किए जाने तक पहुंचा दिया गया कि भारतीय नोट पर, गांधी की तस्वीर के दूसरी ओर, लक्ष्मी-गणेश की तस्वीर छापी जानी चाहिए, जिससे भारतीयों को देवी-देवताओं का आशीर्वाद मिल सके और इस दैवीय आशीर्वाद से भारत की अर्थव्यवस्था को मजबूती मिल सके।

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यही खेल अब ‘‘समान नागरिक संहिता’’ का सच्चा झंडाबरदार होने के दावे तक पहुंच चुका है। लेकिन, हिंदू-हितचिंतक से मुस्लिमविरोधी बहुसंख्यकवादी तक की यह यात्रा भी केजरीवाल ने उत्तरोत्तर तय की है। पूर्वी दिल्ली के दंगे के बाद, कोविड की पहली लहर के दौरान, तबलीगी जमात के बहाने मुस्लिम समुदाय का ही दानवीकरण करने में केजरीवाल और उनकी सरकार ने, मोदी-शाह जोड़ी की सरकार से सचमुच होड़ लेकर दिखाई थी। इसके बाद तो जैसे उनका धडक़ा ही खुल गया। 2022 में ही, जब उत्तर प्रदेश की योगी सरकार का अनुकरण करते हुए, दिल्ली में जहांगीरपुरी में हनुमान जयंती के जुलूस के नाम पर हिंसा कराने के बाद, मुसलमानों के खिलाफ बुलडोजर-अस्त्र को मैदान में उतारा गया, आम आदमी पार्टी और उसकी सरकार ने बाकायदा भाजपा-शासित एमसीडी तथा केंद्र सरकार पर ही, ‘रोहिंगियाओं को पनाह देने’ के आरोप लगाने शुरू कर दिए। यहां से भावनगर की केजरीवाल की प्रैस कान्फ्रेंस एक कदम ही दूर रहती थी। यह दूसरी बात है कि इससे पहले, दिल्ली में हिंदुत्ववादी-जातिवादी दावों के सामने समर्पण करते हुए, अपनी सरकार के एकलौते दलित मंत्री से इस्तीफा दिलवाने के बाद, गुजरात में प्रचार के दौरान केजरीवाल खुद को लगभग कृष्णावतार ही घोषित कर चुके थे, जिसका जन्म ही ‘‘कंस की औलादों’’ का विनाश करने के लिए हुआ था! मोदी का अगर अवतार होने का दावा है, तो केजरीवाल भी क्यों ऐसा दावा करने से पीछे रहें!

और जैसे संघ-भाजपा की हिंदुत्ववादी सांप्रदायिकता की अपनी नकल को पूरा करने के लिए ही, दिल्ली में केजरीवाल सरकार, जगह-जगह बड़े-बड़े तिरंगे लगाने से लेकर, छात्रों को ‘‘कट्टर देशभक्ति’’ की शिक्षा दिलाने तक के राष्ट्रवादी पाखंड के जरिए, अपने ज्यादा से ज्यादा बहुसंख्यकवादी होते चेहरे पर, देशभक्ति का नकाब डालने की भी कोशिश करती रही है। मोदी राज के आचार और विचार की प्रतिलिपि बनकर दिखाने में लगी केजरीवाल की आप पार्टी को गुजरात की जनता विकल्प के तौर पर खास तवज्जो दे, इसकी तो शायद ही कोई तुक होगी। फिर भी वह हिंदुत्ववादी सांप्रदायिकता के मोदी ब्रांड के विकल्प के तौर पर केजरीवाला ब्रांड पेश करने के जरिए, पूरा मैदान हिंदुत्ववादी सांप्रदायिकता के लिए सुरक्षित करने में मदद तो कर ही सकती है। वह मोदी राज के किसी विकल्प की संभावनाओं को कमजोर करने के जरिए, इस बहुसंख्यकवादी सांप्रदायिक जनविरोधी निजाम को कुछ सहारा भी दे ही सकती है। आप पार्टी का अकेले अपने दम पर देश भर में भाजपा का विकल्प पेश करने का दावा करना और उसका मुकाबला करने के लिए विपक्षी ताकतों के साथ आने की जन-भावना के खिलाफ, उसका अपने इकलौता विकल्प होने के इस दावे के अनुरूप हर जगह सभी सीटों पर उम्मीदवार खड़े करने की चुनावी-राजनीतिक कार्यनीति अपनाना, उसकी इसी भूमिका का इशारा है।

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(लेखक प्रतिष्ठित पत्रकार और ‘लोकलहर’ के संपादक हैं।)

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