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धर्म/आस्था

भारतीय जनांदोलनों के असाधारण पुरखे “स्वामी सहजानंद सरस्वती”

 

(विशेष आलेख : बादल सरोज)

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आज 26 जून स्वामी सहजानंद सरस्वती का स्मरण दिवस है। वे भारतीय समाज के असाधारण व्यक्तित्व थे। यह सामान्यतः किसी शख्सियत को याद करते समय कहा जाने वाला रस्मी विशेषण नहीं है, उनकी असाधारणता सचमुच में असाधारण थी। यहाँ बिना किसी विस्तार के उन कुछ पहलुओं पर ही अपनी बात सीमित रखते हैं, जो उन्हें अपने समय के अनेक स्वामियों, राजनेताओं और विचारकों से विशेष बनाती हैं ।

संगठित किसान आन्दोलन के सूत्रधार

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इतिहास में देश के किसान आन्दोलन की धाराएं अनेक हैं, इनमें दी गयी कुर्बानियां अनेक हैं, आदिवासी विद्रोह, युक्त प्रांत के संघर्ष, बिहार की लड़ाईयां, बाकी देश के संग्राम अनगिनत हैं। स्वामी जी का कमाल यह था कि उन्होंने इन सबको जोड़कर देश के पैमाने पर संगठन तैयार किया, उसे बनाया — उसे ऐसा दृढ आधार दिया कि कुछ वर्ष बाद वह 100 वर्ष भी पूरे कर लेगा।

स्वामी जी अपने अध्ययन और अनुभव के आधार पर इस निष्कर्ष पर पहुंचे थे, पुराने और ताजे किसान आंदोलनों को देखने के बाद उन्होंने पाया था कि बिना संगठित आंदोलन के किसान आंदोलन जीवित और निरंतरित नहीं रह सकता। उस जमाने में उन्होंने किसान आंदोलन के सांगठनिक ढाँचे का आधार रखते हुए उसके चार स्तम्भ बताए थे : *एक* – हर जिले में लाखों सदस्य, *दो* – किसान सेवक दल – नेतृत्व का ढांचा, *तीन* – किसान कोष, *चार* – जनता तक साप्ताहिक अखबार की पहुँच यानि – वैचारिक जानकारियों की साझेदारी।

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किसान आंदोलन के बारे में उनकी समझ

किसान आन्दोलन के बारे में उनकी समझ उनकी खुद की पृष्ठभूमि और तब के राजनीतिक हालात से बहुत आगे की थी। शुरुआत में उन्होंने किसानों और जमींदारों के बीच सहकार, बातचीत से समाधान की कोशिशें की। इसके लिए मुहिम चलाई, मगर बाद में वे पूरी तरह स्पष्ट हो गए कि जमींदारी भारत में सबसे दकियानूसी, प्रतिगामी और फालतू की चीज है। वे अपने अनुभव से यहाँ तक पहुंचे। गया के किसानों की हालत का जायजा लेने के लिए राजेंद्र बाबू, श्रीकृष्ण सिंह की समिति गयी, मगर वापस लौटकर कुछ नहीं बोली। बाद में स्वामी जी की टीम ने सघन दौरा किया और 1933 में गया के किसानों की करुण कहानी लिखी । यहीं से उनका असली बदलाव शुरू हुआ — एक दंडी स्वामी की आध्यात्मवाद से मार्क्सवाद तक की यात्रा।

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उन्होंने अपने अनुभव से जाना कि कांग्रेस जमींदारी प्रथा के बारे में बोलने के लिए तैयार नहीं है। गांधी से पहली मुलाक़ात (1920) में वे गांधी से प्रभावित हुए और 1933 में गांधी से दूसरी मुलाक़ात में उनका भ्रम दूर हो गया। कांग्रेस और गांधी के सही वर्ग चरित्र की पहचान उन्होंने की। उन्होंने माना कि जमींदारी नाम की चीज ही बुरी है — इसका कोई उपयोग नहीं है।

जमींदारी के खात्मे की उनकी समझ तार्किक थ

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जमींदारी के खात्मे की उनकी समझ तार्किक थी, भावनात्मक नहीं। उनके सुझाव थे कि : बिना मुआवजे के उनकी जमीन जब्त की जानी चाहिये, उत्तराधिकार क़ानून में सुधार हो – नया क़ानून बने, सम्पत्ति के बंटवारे के क़ानून बने और अधिकतम जमीन की सीमा तय हो।

मगर वे सिर्फ यहीं तक नहीं रुके – उनके समझ थी कि गाँव की आधी आबादी को दूसरे काम-धंधों में लगाया जाए, इसके लिए दूसरे काम-धंधे खोले जाएँ, खेती के समुन्नत विकास के लिए सभी साधन उपलब्ध कराये जाएँ, खेती और घर के लिए दीर्घावधि ऋण दिए जाए।
खेत मजदूरों के बारे में उनकी समझ साफ़ थी : खेत मजदूरों को वे भूमिहीन किसान मानते थे।

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खरी राजनीतिक समझ

राजनीतिक रूप से वे स्पष्ट थे। स्वतंत्रता की लड़ाई में कांग्रेस का साथ देना जरूरी मानते थे, लेकिन उसके साथ-साथ किसान सभा की स्वतंत्र भूमिका जरूरी मानते थे, क्योंकि उनकी राय में कांग्रेस का एकमात्र लक्ष्य आजादी है ; जबकि किसान सभा का फौरी, तात्कालिक लक्ष्य आजादी है, दूरगामी लक्ष्य किसान-मजदूर का राज लाना है।
उनका मानना था कि कांग्रेस राष्ट्रीय संस्था है, इसलिए वर्गीय संगठनों – मेहनतकश वर्गों के संगठन – बनाना जरूरी है। आगे जाकर इस सरकार को भी हटाकर किसान-मजदूरों की सरकार बनाना जरूरी है।

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संयुक्त मोर्चों के महत्त्व के बारे में भी वे पूरी तरह साफ़ थे। उनके मत में पक्का संयुक्त मोर्चा केवल वही हो सकता है, जो पीड़ितों का मोर्चा हो।

स्वामी जी, धर्म और ईश्वर

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वे इस मामले में भी असाधारण हैं कि अध्यात्म और ईश्वर और धर्म के बारे में अपने मजबूत आग्रहों के बावजूद वे उनके प्रति वैज्ञानिक रुख अपनाते हैं और कहते हैं कि “आजादी और रोटी-वस्त्र के लिए अब गरीबों की लड़ाई ज्यादा दिन तक रुक नहीं सकती और उनके मार्ग में धर्म, ईश्वर या जो भी चीज बाधक होगी, उसे बेरहमी के साथ रौंद देंगे। उन्हें कोई शक्ति रोक नहीं सकती।” उनका कहना था कि “धर्म एक व्यक्तिगत मामला है।”

अंतर्राष्ट्रीय चेतना और समझदारी

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उनकी अंतर्राष्ट्रीयता की समझ गजब की थी। दुनिया के किसान आंदोलनों का उनका अध्ययन वृहद था और उसके आधार पर उन्होंने कहा था कि असली समाधान वही है, जो रूस की क्रांति के बाद, उसके दौरान रूस के किसानों ने निकाला। सुभाष बाबू और फॉरवर्ड ब्लाक के साथ होने के बावजूद वे जर्मनी और जापान के सहयोग से भारत को आजाद कराने की उनकी कल्पना को गलत मानते थे। फासिज्म के बारे में उनकी समझ एकदम साफ़ थी : वे 1942 के आन्दोलन को नेतृत्व विहीन मानते थे, रूस पर फासिस्ट हमले के बाद द्वितीय विश्व युद्ध का चरित्र बदल जाने से सहमत थे और मानते थे कि फासिज्म विरोधी संग्राम ही अंगरेजी साम्राज्यवाद से मुक्ति का रास्ता साफ़ करेगा। उन्होंने आव्हान किया था कि भारत के किसान रूस और चीन के साथ, साम्राज्यवाद के खिलाफ खड़े हों। उन्होंने भारत-रूस मित्र मंडलियाँ बनाने का भी आव्हान किया था – खुद बनाई भी थीं।

लाल झण्डे के हिमायती

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किसान सभा के लाल झंडे और उसमें हंसिया, हथोड़े के निशान को लेकर वे हमेशा मुखर रहे। उन्होंने कहा कि “जहां तिरंगा राष्ट्रीय है, वहीँ लाल झंडा अंतर्राष्ट्रीय है। आज अंतर्राष्ट्रीयता के युग में उसका कोई चिन्ह तो चाहिये ही — खासकर किसानों और मजदूरों के लिए, क्योंकि उनकी लड़ाई अंतर्राष्ट्रीय है और इस अंतर्राष्ट्रीयता के बिना उनका वास्तविक उद्धार हो ही नहीं सकता। उन्होंने कहा कि “जब तक संसार के सारे मजदूर, किसानों में एकता और बंधुत्व का भाव नहीं आता, तब तक उसका निस्तार कहीं भी नहीं हो सकता। एक देश का दूसरे के शोषण से घनिष्ठ संबंध है।”
यह भी कहा कि “यह लाल झंडा शोषितों पीड़ितों के लिए ख़ास चीज है, उनकी आशा का केंद्र है। लाल झंडा अंतर्राष्ट्रीय है, इसका मतलब ‘राष्ट्र से बाहर’ नहीं है। लाल रंग, हंसिया, हथोडा सब हमारे भी है, दुनिया के किसानों, मजदूरों के भी हैं। जो लोग लाल झंडे को विदेशी मानते हैं, वे बताएं कि क्या रेल, टार, फोन, पार्लियामेंटरी प्रणाली, संविधान सभा, दवा वगैरा विदेशी चीज नहीं है? जो लोग इन पर फ़िदा हैं और इनके नारे लगाते हैं, वही लाल झंडे से चिढ़ते हैं ।”

साम्यवाद के बारे में समझ

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यही स्पष्टता उनकी साम्यवाद के बारे में थी। वे कभी कम्युनिस्ट पार्टी के सदस्य नहीं रहे, लेकिन उस जमाने में जिस तरह उन्होंने साम्यवाद का समर्थन किया, वह भी असाधारण है। उन्होंने कहा कि “अगर आध्यात्मिक साम्यवाद या ख्याली साम्यवाद का प्रचार करना अपराध नहीं है, तो भौतिक साम्यवाद से चिढ़ क्यों है? अगर ‘निर्दोषं हि समं ब्रम्ह’ और ‘समत्वं योग उच्यते’ जैसे वचनों वाले गीता के आध्यात्मिक साम्यवाद से परहेज नहीं, तो वैज्ञानिक भौतिकवाद से इतनी चिढ़ क्यों?”
अपनी बात आगे बढ़ाते हुए उन्होंने कहा कि “आध्यात्मिक और ख्याली साम्यवाद अकर्मण्यता का पाठ पढाता है, तो भौतिक साम्यवाद कर्मण्यता और साहस, जुझारूपन और कुर्बानी का रास्ता दिखाता है। … आज बेबस, बेजार और गुलाम भारत के लिए इसी की सबसे पहली जरूरत है।” इस आधार पर उन्होंने कहा कि “साम्यवाद ही सर्वोत्तम और स्वाभाविक है।”

उस दौर में अहिंसा और हिंसा के सवाल पर जारी बहस में भी उनका हस्तक्षेप वस्तुगत और तथ्यपरक था। उनका कहना था कि “हिंसा किसी की इच्छा पर निर्भर नहीं है। यह शोषक वर्ग के रुख पर निर्भर करती है। यदि शोषक वर्ग हिंसा का इस्तेमाल करता है, तो शोषितों को उसका जवाब देना ही होगा। वर्ग युद्ध से भागने से बच जाने की समझ समझदारी गलत है।

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आजादी के बाद के हालात पर जो टिप्पणी स्वामी सहजानंद जी ने की थी, वह आज कहीं ज्यादा प्रासंगिक है। उन्होंने कहा था कि “सत्ता हस्तांतरण के बाद दक्षिणपंथी ताकतें बढ़ी हैं। इनकी बढ़त रोकना है, तो वामपंथी शक्तियों को इकट्ठा होना होगा।” वे यह कहकर ही नहीं रुके थे, उन्होंने अनेक वाम संगठनों की एक बैठक भी कलकत्ता में बुलाई थी।

कहने की जरूरत नहीं कि देश का किसान आंदोलन कमोबेश अपने इस संस्थापक पुरखे की उम्मीदों पर खरा उतरने की कोशिशो में लगा है। उसे न डर है, न भय, क्योंकि उसके पास स्वामी सहजानंद सरस्वती की विरासत है और उसे व्यवहार में उतारने के लिए खुद को होम कर देने को तत्पर हजारों-लाखों कार्यकर्ताओं-समर्थकों की कतारें भी हैं।

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(लेखक अखिल भारतीय किसान सभा के संयुक्त सचिव हैं।)

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