कविता
- ऐ मानव,
- मैं प्रकृति हूँ , मैं प्रकृति हूँ ।
- न तुम मुझसे खिलवाड़ करो ।
- मर्यादा में रहना सीखो ,
- न मर्यादा को पार करो ।
- मैं तो तेरी जननी हूँ रे ,
- मुझसे ही तो तेरा जीवन है।
- ये कैसी तेरी नासमझी ,
- तूने छीना मेरा नवयौवन है ।
- तेरी ऐसी हालत देखकर ,
- मेरा हृदय भी कंपित होता है ।
- तेरे नयनों से जो अश्रु गिरे ,
- तो मेरा भी अंतस रोता है ।
- अब जाग भी जाओ , ऐ मानव
- न तुम ऐसे बेमौत मरो ।
- मैं प्रकृति हूँ , मैं प्रकृति हूँ ,
- न तुम मुझसे खिलवाड़ करो ।
- मार्यादा में रहना सीखो ,
- न मर्यादा को पार करो ।
- हर दिशा में है एक सन्नटा ,
- हर ओर अंधेरा छाया है ।
- तेरे ही कर्मो का फल है ये ,
- न ईश्वर की ये माया है ।
- काम , क्रोध , मद , लोभ में तुम ,
- इतने अंधे हो जाओगे ।
- अपनी ही बसाई दुनिया में ,
- यूँ उलझकर तुम रह जाओगे।
- अब सुधर भी जा रे , ये मानव ,
- बुरे कृत्यों से कुछ तो डरो ।
- मैं प्रकृति हूँ , मैं प्रकृति हूँ ,
- न तुम मुझसे खिलवाड़ करो ।
- मार्यादा में रहना सीखो ,
- न मर्यादा को पार करो ।
- कितनी बेरहमी से तुमने ,
- इन बेज़ुबानों को मारा है ।
- बस अपनी तलब मिटाने को ,
- इन्हें मौत के घाट उतारा है ।
- जब वक्त तुम्हारा आया है ,
- तो ये कैसी घबराहट है ।
- इतने सहमे हो तुम क्यो अब ,
- ये डर की कैसी आहट है ।
- जो करनी की है तुमने ,
- उस करनी को अब तुम ही भरो ।
- मैं प्रकृति हूँ , मैं प्रकृति हूँ ,
- न तुम मुझसे खिलवाड़ करो ।
- मार्यादा में रहना सीखो ,
- न मर्यादा को पार करो ।
( आरती साहू स0 अ0) प्रा0 वि0 उमरा पुर तालुक, विकास खण्ड-बनीकोडर, बाराबंकी(उत्तर प्रदेश )
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