जैसे-जैसे चुनाव की तारीखें करीब आ रही हैं, मोदी और उनकी पार्टी, जिसका नाम अभी तक भाजपा है, की बेचैनी और घबराह्ट बढ़ती ही जा रही हैं। स्वाभाविक भी है, एक झूठ को बार-बार बोलकर, हजार बार बोलकर दूसरों के लिए उसके सच होने का भरम तो पैदा किया जा सकता है, लेकिन खुद को तो मालूम है जन्नत की हकीक़त सारी … इसलिए खुद को बहलाने का मुगालता कैसे पाला जा सकता है। ऐसे में जो होता है, वही हो रहा है, ऊपर से नीचे तक अवा का अवा तप-तप कर बेहाल हुआ जा रहा है। उधर इलेक्टोरल बांड्स को लेकर शुरू हुआ सुप्रीम कोर्ट और स्टेट बैंक वाला पंगा, लगता है पूरी तरह नंगा करने की ही ठाने बैठा है। जितनी देर हो रही है, उतनी ही नयी ताज़ी कब्रें खुल रही हैं और हरेक में से कोई-न-कोई जीता जागता घोटाला, भ्रष्टाचार भस्मासुर बन निकल कर खड़ा हो रहा है। कुल मिलाकर ये कि रायता ऐसा फ़ैल रहा है कि समेटे नहीं सिमट रहा। ऐसे में जितनी जोर से ‘अबकी बार चार सौ पार’ की गूँज लगाई जाती है, उससे ज्यादा जोर से वह अबकी बार तड़ीपार की अनुगूंज में लौट-लौटकर प्रतिध्वनित हो रही है।
अब तो उन्हें भी लगने लगा है कि कांग्रेस या दूसरी पार्टियों की टोकरियों से बासे पिचके फल, कुम्हलाई सब्जी या सड़ी-गली भाजी की उठाईगिरी से भी कुछ नहीं बदलने वाला। इधर जनता भी समझ चुकी है कि जिसे वाशिंग मशीन बताया जा रहा था, वह डस्टबिन – कूड़ेदान – के सिवाय कुछ नहीं है। लिहाजा अपने ही दावों की हलकी गैस से भरा ज़रा सा गुब्बारा ज़रा सा ऊंचा उठाते ही इधर उधर डोलने लगा है — सारा आत्मविश्वास हिचकियाँ लेने लगा है। भड़भड़ी इस कदर है कि उत्तरप्रदेश सहित बाकी प्रदेशों की अब तक जारी की गयी सूचियों में किसी वर्तमान सांसद का टिकिट काटने की हिम्मत तक नहीं हो पा रही है। निर्मम वहशीपन के प्रतीक बने, लखीमपुर खीरी में किसानों को अपने बेटे की जीप गाड़ी से कुचलवाकर मरवा डालने वाले टेनी मिश्रा भी लोकसभा चुनावों के लिए उम्मीदवार बना दिए गए हैं।
दूबरे के दो आषाढ़ जैसे काफी नहीं थे, सो बची-खुची कसर पहले सप्ताह में पटना के गांधी मैदान में हुयी महागठबंधन की जनविश्वास महारैली में उमड़ी विराट भीड़ और उसमे लहराते हरे और लाल झंडों ने पूरी कर दी। इस सचमुच की महारैली में लालू प्रसाद यादव ने चुटकी लेते हुए मोदी से उनके परिवार के बारे में क्या पूछ लिया कि उनका परिवार कहाँ है, तो जैसे सारी बर्र और ततैयायें एक साथ निकल पड़ीं। शुरुआत उनके इकलौते खासमखास अमित शाह ने अपने नाम के आगे “मोदी का परिवार” लिख कर की ; इन दिनों ऐसा स्वांग ट्विटर और सोशल मीडिया पर किया जाता है और काम पूरा होते ही बंद कर दिया जता है। इसके बाद तो भाजपा नेताओं में होड़ सी लग गयी और सबके सब अपनी गद्दी और उसकी संभावनाओं को सम्हालने के लिए अपनी-अपनी वल्दियत सुधारने और सुधार ली है यह सार्वजनिक रूप से दिखाने और बताने में भिड़ गए!! खुद मोदी भी लगातार सभाओं में “मैं हूँ मोदी का परिवार” से “मोदी कुटुम्बम” के हुंकारे भरवाने के लिए मैं हूँ … मैं हूँ … मैं हूँ का त्रिवाचा भरवाते हुए नजर आने लगे। उनकी यह आत्मरति और आत्मश्लाघा भारत और विश्व के मनोविज्ञान के विद्यार्थियों के अध्ययन का एक ताज़ा और सहज उपलब्ध सबक तो बन सकती है, मगर किसी देश के, वह भी भारत जैसे 140 करोड़ आबादी वाले देश के, प्रधानमंत्री का यह आत्ममुग्ध नारद स्वयंवर अवतार क्षोभ और जुगुप्सा ही जगाता है। हालांकि इस सबके बावजूद एक लोचा है, जो कुनबे को और ज्यादा डरा रहा है और वह यह कि इस बार अपने नाम के साथ “मोदी का परिवार” चिपकाने का ज्वार कम ही दिख रहा है। इसकी तीव्रता, समावेशिता और व्यापकता पिछली बार के लोकसभा चुनाव के वक़्त के ऐसे ही शिगूफे “मैं भी चौकीदार” के मुकाबले तो बहुत ही कम है!! जो दिखा, वह उन्हीं जैसों में ज्यादा दिखा, जो मन से शुभाकांक्षी कम, नीयत से कृपाकांक्षी अधिक थे। पांचो उँगलियाँ घी और सिर कड़ाही में न सही, उच्छिष्ट में ही हिस्सेदारी मिल जाने के आतुराकांक्षी थे।
बाकी सबके अलावा यह प्रलाप और खुद को मोदी का परिवार बताने वाली कठपुतलियों का कोरस गान उस पार्टी – भाजपा – और उस कथित विचार परिवार – आरएसएस – की आज की हैसियत और असलियत, उनके दिवालियेपन की दुर्गत सार्वजनिक रूप से उजागर करने वाला भी है ; जो खुद को विश्व की सबसे बड़ी राजनीतिक पार्टी होने का दावा करती है ; जो अपने अलग चाल, चरित्र और चेहरे की दुहाई देते नहीं थकती है। व्यक्तिनिष्ठ नहीं, विचारनिष्ठ ; पदनिष्ठ नहीं, संघनिष्ठ होने के दम्भ भरने वाली इस कथित विचारधारा के खोखलेपन की धज्जियां यूं तो अनेक बार पहले भी उड़ी हैं, मगर इस बार तो जैसे जिनपे तकिया था, वही पत्ते हवा देने पर आमादा हैं। जो संघ अगली साल 100 साल का हो जाएगा, 73 वर्ष पहले बने जिस जनसंघ से 44 साल पहले 1980 में जो भाजपा बनी थी, अब उसके पास अपनी निर्वसनता को ढांपने, ओढ़ने, बिछाने के नाम पर मोदी नाम केवलम के अलावा कुछ भी नहीं बचा!! वे राम भी नहीं हैं, जिनके नाम पर अभी डेढ़ महीने पहले ही तामझाम करके चुनाव की वैतरणी पार करने का मंसूबा साधा था। ज्ञात राजनीतिक इतिहास में ऐसा भारत ही नहीं, दुनिया में भी कम ही देखने में आया है, जब विचार, सिद्धांत, संगठन, लक्ष्य, उद्देश्य सहित सब कुछ हाड़-मांस के एक व्यक्ति पर ही केन्द्रित होकर रह जाए।
इस स्थिति की आशंका 2014 से ही दर्ज की जाने लगी थी कि जो अलाने और फलाने और ढिकाने से मुक्त भारत की बात कर रहे हैं और जिस तरह से कर रहे हैं, उसकी पहली परिणिति तो भाजपा मुक्त भाजपा में होगी। हाल में हुए विधानसभा चुनावों में भी इसकी एक झलक मिली थी, जब मुख्यमंत्री का चयन करते में सारे आधार दरकिनार रखते हुए चरणामृत का पान करने वाले अनाम प्रसादों की पर्चियां निकलवाई गई थी। अभी दिल्ली में हुई जम्बूरी में तो दल का संविधान बदले बिना ही अध्यक्ष चुनने की प्रक्रिया बदल दी गयी। देश-प्रदेश के भाजपाइयों की रजामंदी के बजाय अध्यक्ष चुनने का अधिकार उस संसदीय बोर्ड को दे दिया गया, जो खुद निर्वाचित निकाय नहीं होता है। संसदीय लोकतंत्र में जहां राजनीतिक दल चुनाव लड़ते और सत्ता हासिल कर देश की दिशा निर्धारित करते हैं, वहाँ उन दलों के भीतर का हाल सिर्फ उनके भीतर का मसला नहीं होता है — उनके अन्दर आतंरिक लोकतंत्र का नकार, उनके अन्दर तानाशाही का उभार देश को भी तानाशाही की ओर धकेल देने की पक्की गारंटी है और फिलवक्त सैन्गोलधारी मोदी की यही एकमात्र गारंटी है, जिसके पूरे हो जाने की भरी-पूरी आशंका है और जिसे पूरा करने के लिए वे आकाश-पाताल एक किये हुए हैं।
अब जब खुद उन्हीं की तरफ से अपना परिवार बताने की मुहिम शुरू कर दी गयी है, तो स्वाभाविक ही था कि बात उनके इन आभासीय परिजनों से आगे उनके वास्तविक परिजनों तक भी पहुंचनी ही थी, पहुंच भी रही है। ललित मोदी, नीरव मोदी, मेहुल चौकशी से होते हुए ब्रजभूषण शरण सिंह, कुलदीप सेंगर, आसाराम और गुरमीत राम रहीमों तक जा रही है। व्यक्तियों के परिवार से उठकर अस्तबल में बांधे गए संस्थानों के परिवारी होने तक भी जायेगी ही ; सीबीआई, ईडी, इनकमटैक्स, इलेक्टोरल बांड्स के साथ बाकायदा बांड भरकर परिवारी बनी स्टेट बैंक ऑफ़ इंडिया और चुन-चुन कर परिवार से ही लाकर भरे गए केंचुआ नाम से प्रसिद्ध हो चुके केन्द्रीय चुनाव आयोग को भी शुमार में लाएगी। ये जायज सवाल उठेंगे ही कि भाई जी जब अब तक टिकिट सूची में नाम न आने के बावजूद नितिन गडकरी, सीएम की कुर्सी से धकेले जाने के बाद भी शिवराज सिंह और माला से बाहर किये जाने पर भी राजनाथ सिंह जब खुद को मोदी का परिवार बताते नहीं थक रहे थे, तो उनके लठैत परिवारी और 25 लाख करोड़ रुपयों से उपकृत आभारी अडानी-अम्बानी आदि बंधु-बांधव अपने नाम के आगे मोदी का परिवार लिखने में काहे हिचकिचा रहे हैं!! बात जब शुरू होती है, तो अपने तार्किक निष्कर्ष तक पहुंचकर ही रुकती है। मैं भी परिवार का यह मयूर नृत्य शुरू होते ही अब भाजपा नेताओं के परिवारवाद पर भी चर्चा होने लगी है। नायब सुप्रीमो अमित शाह से लेकर केंद्र और राज्य में ऐसा शायद ही कोई भाजपाई हो, जिसके अपने परिवार के लोगों ने उनकी हैसियत का फ़ायदा उठाकर खुद की हैसियत से ज्यादा ऊंची छलांग न मारी हो, उनके धंधों और कर्मों के लिए क़ानून न तोड़े गए हों।
इस दांव के उलटे पड़ने के बाद भी हुक्मरान और उनका गिरोह चुप बैठने वाला नहीं है। वह किसी नई भावनात्मक तिकड़म को लेकर आयेगा, क्योंकि उसे पता है कि ये चुनाव देश और उसके संविधान, लोकतंत्र के लिए ही नहीं, मोदी, उनके कुनबे और उनके पालनहार कार्पोरेट्स के लिए भी जीवन मरण का प्रश्न है। उन्हें यह भी पता है कि बताने और दिखाने के लिए अब उनके पास जुमले भी नहीं बचे हैं, उनकी गारंटी के नाम पर की गयी री-पैकेजिंग की वारंटी बाजार में आने से पहले ही खत्म हो चुकी है। अब ऐसा तो है नहीं कि वे ही सब कुछ जानते या समझते हैं और जनता कुछ भी नहीं जानती। जनता समझदार है, लोकतंत्र में वही सबसे बड़ा सच है। मजमून भांपने के लिए उसे लिफाफा देखने भी जरूरत नहीं पड़ती। इधर पिछली सदी के सभी महत्वपूर्ण राजनीतिक बदलावों के अगुआ रहे गांधी मैदान में उमड़ी विराट जनता इसी जागरण का मूर्तमान रूप था। इसमें वाम की असरदार मौजूदगी में लोकतांत्रिक धर्मनिरपेक्ष दलों की धुरी इंडिया के शीर्ष नेताओं की हाजिरी इसका यकीन भी दिला रही थी।
इधर केरल में वाम ने रिकॉर्ड तोड़ उपलब्धियों के साथ अपना विजयी अभियान शुरू कर दिया है, तो उधर संदेशखाली सहित पूरे बंगाल में सीपीएम और वाम की अगुआई में हुयी शानदार और जुझारू लामबन्दी, इस कस्बे और उसके बहाने पूरे इलाके को प्रतिस्पर्धी और पारस्परिक पूरक साम्प्रदायिकता की नूरा-कुश्ती का अखाड़ा बनाने की साजिशों के खिलाफ फौलादी एकता का उदाहरण पेश कर रही थी। किसान अपने मेहनतकश भाई-बहिनों के साथ पहले से ही मोर्चे पर डटे हुए हैं। युवा बेकरारी के साथ अपने मौके का इन्तजार कर रहे हैं। यही एकजुट होता आक्रोश और मुखर होता रोष है, जिसने मुहावरे को शब्दशः उतार दिया है और नानी याद दिला दी है। अगले कुछ सप्ताह इसी तरह जागे और जगाते रहने वाले हुए, तो बात और रोचक होने वाली है, अभी तो नानी ही याद आई है, इन्तजार कीजिये, दादी-परदादी और परनानी सबकी याद आने वाली है।
(आलेख : बादल सरोज)
लेखक ‘लोकजतन’ के संपादक और अखिल भारतीय किसान सभा के संयुक्त सचिव हैं।