- रिश्ते के पौधे को प्रेम, सम्मान, परवाह के जल से सींचा जाता है। रिश्तों में कभी प्रेमपूर्ण वसंत होता है तो कभी वाद-विवाद जैसे झंझावात भी आते रहते हैं।
- प्रेम में सफल वही हैं जो प्रतिकूल परिस्थितियों में मज़बूती से एक-दूसरे का हाथ थामे खड़े रहते हैं।
रिश्तों की डोर नाज़ुक होती है, प्रेम इसका प्रमुख संबल होता है। दो लोगों के प्रेमपूर्ण रिश्ते में प्रेम के अलावा भी कई अन्य चीज़ों का प्रमुख स्थान होता है। इसी तरह रिश्तों में नोक-झोंक होना भी आम बात है। किंतु, अक्सर किसी बात पर हम अपने साथी से चर्चा करना शुरू करते हैं और कुछ देर बाद वह बहस का रूप ले लेती है। छोटी-सी बात का बतंगड़ बन जाता है। दोनों एक-दूसरे से प्रेम से बात करने के बजाय एक-दूसरे को चोट पहुंचाने पर आमादा हो जाते हैं। वे एक-दूसरे की ग़लतियां निकालते हैं, खामियां बताते हैं, शिक़ायतें करते हैं, फिर पुरानी बातों को याद दिलाकर अपने पक्ष को और मज़बूत बनाने की कोशिश करते हैं। ऐसे में प्रेम का कोई अस्तित्व नहीं रह जाता।
ऐसी मुश्किलें प्रेम से हल हो जाएं, कौन नहीं चाहता! लिहाज़ा चंद सुझाव प्रस्तुत हैं।
अंदाज़-ए-बयां बदलें
वाद-विवाद मनुष्य की स्वाभाविक प्रवृत्ति है, किंतु कई बार यह किसी भी व्यक्ति को मानसिक रूप से परेशान कर सकता है। बहस से बचने के लिए हमें यह स्वर्णिम नियम याद रखना चाहिए कि हमारे साथी को हमारे शब्दों से नहीं, उन्हें बोलने के अंदाज़ से चोट पहुंचती है।
हम क्या बोल रहे हैं, इससे सामने वाले को उतनी चोट नहीं पहुंचती जितनी कि इस बात से पहुंचती है कि हम उसे किस तरह से बोल रहे हैं। अच्छे शब्द भी ग़लत तरीक़े से बोलने पर दिल दुखा सकते हैं और बुरे शब्द भी अच्छे तरीक़े से बोले जाने पर झगड़े को सुलझा सकते हैं। कहते हैं न कि ‘अंदाज़-ए-बयां बात बदल देते हैं, वरना दुनिया में कोई नई बात नहीं।’
नज़रिए का फेर है
बहस के दौरान हम अक्सर स्वयं को सही साबित करने के लिए एक-दूसरे को मानसिक चोट भी जाने-अनजाने में पहुंचा देते हैं। जबकि, हमें यह समझना होगा कि हम भिन्न हैं, हमारी परवरिशें अलग हैं, हमारा मनोविज्ञान और सोचने का नज़रिया भी अलग है।
इसलिए किसी विषय पर असहमत होना नितांत स्वाभाविक है। किंतु, इसके उलट हम सच को किनारे कर बहस के लिए कमर कस लेते हैं और रिश्ते पर गांठ पड़ जाती है। वहीं कई लोग बहस में अधिक तो नहीं बोलते किंतु अपनी शिक़ायतों को मन के भीतर ही इकट्ठा कर लेते हैं। ऐसा करना भी ठीक नहीं है क्योंकि यह भविष्य में आपके रिश्तों पर अत्यधिक नकारात्मक प्रभाव डाल सकता है।
यदि बहस से बचना है तो इन बिंदुओं पर ग़ौर करे…
- यदि आपकी कोई शिक़ायत है तो सामने वाले व्यक्ति से सामान्य रूप से बात करें। पहले उनकी कुछ अच्छी आदतों की सराहना भी करें और उसके बाद अंत में बिना लहजा बदले अपनी शिक़ायत भी उनके सामने रख दें। इससे आपकी बहस भी नहीं होगी और शिक़ायत का निराकरण भी हाे जाएगा।
- यदि आप अपनी चिंताओं के लिए अपने साथी को ही ज़िम्मेदार बताएंगे, तो हो सकता है उनका मस्तिष्क इसे एक विफलता की तरह ले ले। इससे समस्या सुलझने के बजाय और बढ़ेगी तथा चिंता में ही इजाफ़ा होगा।
- वैज्ञानिक एकमत हैं कि पुरुष भावनाओं को आसानी से नहीं समझ पाते। किंतु, महिलाएं आसानी से समझ जाती हैं। इसलिए यदि महिलाएं चाहती हैं कि आपकी परेशानी को बेहतर ढंग से समझा जाए तो आप अपनी परेशानी को स्पष्ट शब्दों में बताएं। इससे बहस की नौबत नहीं आएगी।
- हर कोई चाहता है कि उसे स्वीकार किया जाए और उस पर भरोसा किया जाए। किंतु, यदि आप अपने साथी की हर बात पर बुरा मानेंगे तो उन्हें लग सकता है कि उन्हें अस्वीकार किया जा रहा है, या नाकारा समझा जा रहा है।
- आक्रामक अंदाज़ और ऊंची आवाज़ में बोलना बात बिगाड़ सकता है और साथी को यह लग सकता है कि आप उनका सम्मान नहीं करते। जब भी अपना पक्ष रखें तो भाषा सौम्य रखें और बीच-बीच में स्नेहसूचक शब्दों का इस्तेमाल करते रहें।
- महिलाओं की प्रवृत्ति अपनी परेशानी को बोलकर मन हल्का करने की होती है, जबकि पुरुष मस्तिष्क तार्किक ढंग से उसके समाधान खोजता है। इसलिए जब भी पुरुष अपने साथी की परेशानी सुनें तो उन्हें तुरंत समाधान न सुझाएं। बस उनकी बातों को ध्यान से सुन लें।
- आपस में बात करते हुए अधिक समय हां, हूं जैसे शब्दों का इस्तेमाल करने पर सामने वाले को यह लग सकता है कि आप उनकी बातों को सिर्फ़ सुनकर टाल रहे हैं। बीच-बीच में कुछ बड़े-बड़े वाक्यों का प्रयोग करते रहें ताकि वह एकतरफ़ा संवाद न लगे। अंत में यह स्वर्णिम नियम याद रखें… विवाह या प्रेम की सफलता सही साथी तलाश करने से नहीं होती, बल्कि सही साथी बन जाने से होती है।