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अन्यसंपादकीय

क्या अब शिष्ट होना भी गुनाह है?:: बादल सरोज

नानी याद आने की कहावत थोड़ी अतिरंजित है, असल में तो अम्मा याद आती है। आज हमें अम्मा याद आ गयी।

अम्मा हमारी बिना पढ़ी-लिखी थी — गेरुआ वस्त्र धारी साधू के घर में एक के बाद (हमारी भाषा में इसे तराऊपर कहते हैं) जन्मी छठवीं बेटी और 22 गाँव के जमींदार बौहरे रामचरण की पौत्र वधू थी। साधू नाना को उन्हें पढ़ाने का काम सांसारिक माया मोह में फंसने वाला लगा होगा। यूं उन्हें पढ़ाने का ध्यान तो हमारे पा को भी नहीं आया, जो खुद हिंदी के तुर्रम खाँ कवि और इसी भाषा के प्राध्यापक भी थे!! उन्हें अक्षर ज्ञान कराने और लिखना;पढ़ना सिखाने का काम — जब वे जनवादी महिला समिति की प्रदेशाध्यक्षा बनी, तब उनके सबसे काबिल बेटे — मानस पुत्र — शैलेन्द्र शैली ने किया था। शैली ने अपनी तूफानी व्यस्तताओं के बीच भी माँ – गायत्री सरोज – को पढ़ाने का समय निकाल लिया था। खैर इस सब पर बाद में, क्योंकि इसमें शरीके जुर्म हम भी हैं। हमे भी यह आईडिया नहीं आया था ।

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आज हमने जब डॉ. स्तुति (व्यक्तित्व के अनुरूप कितना सुन्दर नाम है) के ट्वीट और तूमार खड़े होने पर उस ट्वीट के डिलीटत्व को प्राप्त हो जाने के बारे में चर्चा का शोर और खुद उनके द्वारा ट्वीट डिलीट की सूचना पढ़ी, तो हमे अम्मा याद आयी। उनके तीन प्रसंग स्मृतियों में ताजे हुए।

अप्रैल के आख़िरी सप्ताह में हम जब स्कूल से पास होकर लौटते थे, तब अम्मा बेसन के लड्डू हाथ में देने के पहले पूछती थी कि : मास्साब के पाँव छूकर आये कि नहीं? हम झल्ला कर कहते थे कि जब रिजल्ट बँट रहा था, तब मास्साब क्लास में नहीं थे। अम्मा कहती थी : जा कल उनके पाँव छूकर आ और चार लड्डू भी देकर आना। हमको अब तक पाँव-पाँव जाकर कक्षा-4 में पारख जी के बाड़े के एक बाड़े में रहने वाले मास्साब गंगाराम जी, कक्षा-7 में नया बाजार में रहने वाले मास्साब बलवीर सिंह जी, कक्षा-8 में हुजरात पुल के पास एक गली में रहने वाले गोकुल प्रसाद शास्त्री जी और कक्षा-9 में गोसपुरा नम्बर एक में रहने वाले मास्साब पटेल साब के घर जाना और उनके चरण स्पर्श करना याद है।

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अम्मा जब गर्मी की छुट्टियों में ननिहाल के घर में खीर बनाती थी, तो एक कटोरा भर कर हमारे हाथ में थमा कर गाँव के उत्तरी कोने पर रहने वाले रहमू मामा के यहां देकर आने के लिए कहती थी। साथ में हिदायत भी देती थी कि लौटते में रहमू मामा वाली नानी से लू उतारने वाली नीम की डाली लेते आना और उनके पाँव जरूर छूकर आना। हमारे बृज में मामाओं के पाँव नहीं छूए जाते। रहमू मामा ताँगा चलाने, बैंड – असल में ढोल-तासे – बजाने और बच्चों की हंसली, बड़ों की कमर का चुर्रा सुधारने सहित कई तरह के मल्टीपल कामो के स्पेशलिस्ट थे। ब्राह्मणो, जाटों और जाटवों के गाँव में उनका अकेला मुसलमान परिवार था। माँ जब हम सहित छुट्टियां काटकर वापस लौटती थी, तो (हमारे इकलौते मामा रमेश चंद्र — जो बाद में रमेश चंद्र आर्य और बिल्कुल बाद में पच्छिमानी वाले आश्रम के स्वामी रमेशानन्द भवति भये — बहुत छोटे थे) यही रहमू मामा दही और पेड़े और पानी का भरा हुआ कांसे का लोटा लेकर अपने घर के बाहर खड़े मिलते थे। हम सबको एक-एक पीली दुअन्नी, अम्मा को एक रुपया (उस समय की उनकी आमदनी के लिहाज से यह ज्यादा ही था) देते थे। सबके पाँव पड़ते थे और पूरा दगरा पार करा के, आँखों में आंसू भरे, “गायत्री बहना अबकी बार जल्दी अइयो बेटा” कहते हुए नहर की पुलिया से वापस लौटते थे।

पापा के न रहने के तीसरे दिन अम्मा ने पूछा था : अस्पताल (वह नर्सिंग होम जहां सरोज जी ने आख़िरी साँसें ली थीं) गए थे? हमने कहा — आख़िरी 7 दिन के पैसे उसने नहीं लिए। बाकी बिल पहले ही पेमेंट कर दिया था। अम्मा बोलीं : “पैसा ही सब कुछ होता है क्या? डॉक्टर और सुभद्रा, जानकी और अफ़साना (नर्सेज के नाम) से मिलकर आये? जाओ, उनसे मिलकर आओ। उनने तो पूरी कोशिश की थी ना — उनसे धन्यवाद बोलकर आओ।”

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ऐसी कहानिया अनंत हैं, फिलहाल बस इतनी।

गरज ये है कि अम्मा ने सिखाया कि जो तुम्हारे लिए कुछ भी करता है, उसे शुक्रिया बोलो, उसका आभार जताओ, उसके ऋणी और अहसानमंद रहो। अम्मा कहती थी : सभ्य बनो, शिष्ट बनो, मनुष्य बनो!!

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रात 11.30 बजे किसी जरूरी दवाई की तलाश में मेडिकल स्टोर्स ढूंढती डॉ. स्तुति मिश्रा ने जिस दवा दुकान पर उन्हें औषधि मिली, उसके बारे में ट्वीट करके जब लिखा कि : *”‘मुझे कल रात एक दवा की जरूरत थी। रात 11.30 बजे सभी दुकानें बंद थी, सिर्फ एक मुस्लिम की मेडिकल दुकान खुली थी। ड्राइवर और मैं उस दुकान पर पहुंचे और हमने दवा खरीदी। इस दौरान दुकानदार ने कहा कि दीदी, ये वाली दवा से नींद आती है, कम ड्रॉप ही दीजिएगा। वह मुस्लिम कितना केयरिंग था।’*

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तो हमें लगा कि जरूर इनकी माँ हमारी अम्मा जैसी होंगी। उन्हीं ने स्तुति बहन को शिष्टता और मनुष्यता सिखाई होगी। उन्हें दिल से स्नेह और आशीष। उनकी माँ और परवरिश को प्रणाम।

मगर जब उन्होंने कुछ असभ्यों, अशिष्टों और अमानुषों की ट्रोल से आजिज आकर अपना ट्वीट वापस लिया, तो लगा कि जैसे अम्मा पराजित हो गयी!! लगा कि अरे, ये कहाँ आ गए हम!!

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क्या अब शिष्ट और मनुष्य होना गुनाह हो गया है? क्या अब इन कथित रामभक्तों की अदालत में राम की भी पेशी होगी, जिन्होंने युद्धोपरांत लक्ष्मण को आदेश दिया था कि वे रावण से ज्ञान लेने उनके पास जाएँ और ध्यान रखें : रावण के सिरहाने की तरफ नहीं, उनके चरणों की तरफ खड़े हों।

ये किस तरह के श्रृंगाल समूह हैं, जो इस तरह का नफरती वृंदगान करते हैं और एक निश्छल हृदया बेटी को अपनी निर्मलता के प्रतीक आभार को डिलीट करने के लिए विवश कर देते हैं? इनकी मांओं ने तो इन्हे ऐसा कतई नहीं बनाया होगा। फिर ये ऐसे कैसे हो गए। ये कौन सी फैक्ट्री है, जिसमें इस तरह के लोग तैयार हो रहे हैं। यह जानना जरूरी है, क्योंकि अम्मा कहती थी कि : संगत और सोच खराब हो, तो सब कुछ खराब हो जाता है। आज हमे अपनी अम्मा बहुत याद आयी ….और हम उन्हें पराजित नहीं होने देंगे!!

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डॉ. स्तुति को उनके पहले ट्वीट के लिए सलाम। उन्होंने अपने ट्विटर अकाउंट में अपने बायो में लिख रखा है : ममाज डॉटर (मां की बेटी)। उनकी माँ को एक बार पुनः सादर प्रणाम।

(*पुनश्च* : खबरों में बताया गया है कि वे फलां राजनीतिक पार्टी के मध्यप्रदेश के अध्यक्ष की पत्नी हैं। हमारे लिए – फिलहाल, इस प्रसंग में – उनका किसी की पत्नी होना या उनके पति का किसी पार्टी से जुड़ा होना महत्वपूर्ण नहीं है, इसलिए यह जिक्र नहीं किया। हालांकि यह ख़ुशी की बात है कि वे हमारे शहर के एक पूर्व छात्र नेता की जीवन संगिनी हैं – दोनों को हार्दिक शुभकामनाये। उनका दाम्पत्य जीवन सुखद और दीर्घायु हो।)

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लेखक ‘लोकजतन’ के संपादक और अ. भा. किसान सभा के संयुक्त सचिव हैं।

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