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Editorial/संपादकीयटॉप न्यूज़

ताजा चुनाव नतीजे और विपक्ष के लिए सबक

(प्रस्तुति सईद पठान)

(आलेख : राजेंद्र शर्मा)

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सन् 2022 के ऐन आखिर में हुए तीन बड़े चुनावों में से तीनों में सभी जानते हैं कि बिल्कुल स्पष्ट नतीजा निकला है। यह नतीजा है, गुजरात में भाजपा की, हिमाचल में कांग्रेस की और दिल्ली में, आम आदमी पार्टी की जीत का। यानी कुल मिलाकर इस चक्र के नतीजों को आसानी से, कम–से–कम आगे के लिए राजनीतिक संकेतों के अर्थ में, किसी पार्टी के पक्ष में या किसी पार्टी के खिलाफ नहीं माना जा सकता है। यहां तक कि इसी दौर में हुए उपचुनावों के संबंध में भी एक हद तक ऐसा ही कहना होगा। बेशक, इकलौते लोकसभाई उपचुनाव में, मैनपुरी में समाजवादी पार्टी की डिम्पल यादव ने, सवा दो लाख वोट के अंतर से निर्णायक जीत दर्ज कराई है। लेकिन, इसके साथ ही उत्तर प्रदेश में ही हुए दो विधानसभाई सीटों के उपचुनाव में, रामपुर की सीट अगर भाजपा ने सपा से छीन ली है, तो खतौली की सीट सपा-राष्ट्रीय लोकदल गठबंधन ने, भाजपा से छीन ली है।

वैसे इस सिलसिले में यह दर्ज करना भी अप्रासंगिक नहीं होगा कि करीब 50 फीसद मुस्लिम आबादी वाले रामपुर में मुसलमानों को पुलिस-प्रशासन के जरिए मतदान से रोके जाने की सबसे ज्यादा शिकायतें आई थीं, जिन पर जाहिर है कि अपने वर्तमान रुझान के अनुरूप चुनाव आयोग ने कोई कार्रवाई नहीं की थी। इसीलिए, भाजपा ने यह सीट सपा से छीनी जरूर है, लेकिन ऐसा लगता है कि इसकी कीमत अल्पसंख्यक मतदाताओं की बड़ी संख्या को मतदान न करने दिए जाने के रूप में चुकायी गयी है, जिससे यहां कुल मतदान आसामान्य रूप से गिरकर, 33 फीसद के करीब ही रह गया, जो इसी राज्य में उसी रोज उपचुनाव में ही मैनपुरी तथा खतौली से हुए मतदान से, करीब बीस फीसद कम था।

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बची हुई चार राज्यों की एक-एक विधानसभाई सीटों के लिए उपचुनाव में भी, जहां राजस्थान तथा छत्तीसगढ़ की विधानसभाई सीटें, इन राज्यों में सत्तारूढ़ कांग्रेस ने जीत ली हैं, ओडिशा की सीट भी सत्ताधारी बीजद की ही झोली में गई है। एक बिहार की कुढ़नी सीट ही है, जिस पर राज्य में पिछले ही महीनों सत्ता में आए, विस्तारित महागठबंधन के उम्मीदवार को हराकर, भाजपा ने जीत दर्ज कराई है। कुल मिलाकर इन नतीजों में भी बहुत स्पष्ट राजनीतिक संदेश नहीं पढ़ा जा सकता है।

लेकिन, इसका अर्थ यह भी नहीं है कि इन नतीजों में कोई राजनीतिक संदेश पढ़ने की कोशिश ही नहीं की जा रही है। इन नतीजों में राजनीतिक संदेश पढ़ने की ही नहीं, वास्तव में अपना मनचाहा संदेश गढ़ने की भी सबसे बड़ी कोशिश तो खुद प्रधानमंत्री मोदी ने ही की है, मतगणना की शाम को भाजपा के पार्टी मुख्यालय में अपनी बहुप्रचारित और लगभग सभी राष्ट्रीय समाचार चैनलों पर लाइव प्रसारित, ‘विजय’ सभा के जरिए।

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इस पूरे आयोजन का एक ही मकसद था—भाजपा के चुनाव के इस चक्र में ‘विजेता’ रहने के संदेश को दूर-दूर तक प्रसारित करना। जाहिर है कि यह 2023 में होने जा रहे कई राज्यों के विधानसभाई चुनावों और 2024 के पूर्वार्द्घ में होने जा रहे आम चुनाव की ‘तैयारियां’ शुरू किए जाने का ही एक महत्वपूर्ण औजार है। आखिरकार, प्रधानमंत्री मोदी के चेहरे के साथ भाजपा की अजेयता की छवि और धारणा ही तो, सत्ताधारी संघ-भाजपा का सबसे असरदार हथियार है। इसी हथियार को टीना यानी ‘दूसरा कोई विकल्प ही नहीं है’ के नाम से जाना जाता है।

कहने की जरूरत नहीं है कि प्रधानमंत्री ने अपने नेतृत्व में भाजपा के इस चक्र में ‘विजयी’ रहने के नैरेटिव को चलाने के लिए, गुजरात में भाजपा की जीत को ज्यादा से ज्यादा दुहने का सहारा लिया। बेशक, गुजरात में विधानसभाई चुनाव में भाजपा को अभूतपूर्व जीत मिली है। सीटों के संख्या के मामले में इस चुनाव में भाजपा ने इस राज्य के अब तक के जीत के सारे रिकार्ड तोड़ दिए हैं। यहां तक कि प्रधानमंत्री मोदी ने बड़े गदगद भाव से खुद अपने आप को इसका भी श्रेय दे दिया कि 2002 के नरसंहार के बाद हुए विधानसभाई चुनावों में खुद नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भाजपा को जितनी सीटें मिली थीं, इस बार वह रिकार्ड भी टूट गया है!

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लेकिन, प्रधानमंत्री मोदी चुनाव के इस चक्र में भाजपा को ‘विजयी’ घोषित करने के लिए, गुजरात की जीत पर ही नहीं रुके। सवा चतुराई का प्रदर्शन करते हुए प्रधानमंत्री ने, हिमाचल के विधानसभाई चुनाव में सत्ताधारी भाजपा की करारी हार को यह कहकर ज्यादा से ज्यादा ढांपने की कोशिश की कि वहां भाजपा, एक फीसद से भी कम अंतर से पीछे रह गई। इसी दलील को और प्रभावशाली बनाने के लिए, वह यह दावा करना भी नहीं भूले कि अब तक तो वहां चार, पांच, छ: फीसद वोट के अंतर से वहां हार-जीत होती आई थी!

इसी प्रकार, प्रधानमंत्री उपचुनाव के नतीजों को छांट-छांटकर जिक्र करते हुए, बिहार में कुढनी तथा उत्तर प्रदेश में रामपुर के विधानसभाई चुनाव में भाजपा की जीत का उल्लेख करना तो याद रहा, लेकिन उत्तर प्रदेश में ही रामपुर की बगल में खतौली में और छत्तीसगढ़ में भानुप्रतापपुर, राजस्थान में सरदार शहर और ओडिशा में पद्मपुर विधानसभाई सीटों पर उपचुनाव में भाजपा की काफी अंतर से हार उन्हें याद ही नहीं आई। यहां तक कि मैनपुरी की इकलौती लोकसभाई सीट पर उपचुनाव में, भाजपा उम्मीदवार की सवा दो लाख से ज्यादा वोट से हार और भाजपा के वोट में सवा लाख से ज्यादा की कमी भी प्रधानमंत्री को याद नहीं रही। इन पराजयों से प्रधानमंत्री की भाजपा के अपराजेय होने के प्रचार का गुब्बारा पंचर जो हो जाता है।

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इतना ही नहीं, हिमाचल की हार को ‘लगभग जीत’ साबित करने की कोशिश में, प्रधानमंत्री ने विजेता कांग्रेस के एक फीसद से कम मत फीसद से ही आगे रहने की दलील के सहारे, यह भी साबित करने की कोशिश की कि वहां भाजपा के राज के खिलाफ जनता में कोई असंतोष नहीं था। भाजपा अध्यक्ष, जे पी नड्डा ने, जो खुद हिमाचल से ही आते हैं, इसका और भी जोर-शोर से दावा किया। लेकिन, मोदी और उनके आशीर्वाद से भाजपा अध्यक्ष बने हुए नड्डा, इस सच्चाई को दबा गए कि 2017 के चुनाव की तुलना में, 2022 के विधानसभाई चुनाव में पूरे पांच फीसद से ज्यादा वोट भाजपा से छिटका है और करीब इतना ही वोट उसकी प्रतिस्पर्द्घी कांग्रेस के खाते में जुड़ा है, जिसने उसे विजयी बनाया है। साफ है कि हिमाचल में भाजपा सरकार के खिलाफ काफी तेज सत्ताविरोधी लहर थी।

हिमाचल की ही तरह, इसी चक्र की जिस एक और हार को मोदी ने करीब-करीब पूरी तरह से छुपाने की ही कोशिश की है, वह है दिल्ली के पुनरेकीकृत नगर निगम के चुनाव में, नगर निकायों में पंद्रह साल से सत्तारूढ़ रही भाजपा की, आम आदमी पार्टी के हाथों करारी हार। ढाई सौ सीटों के सदन में भाजपा मुश्किल से सौ का आंकड़ा पार कर पाई है, जबकि इससे पहले उसकी संख्या पौने दो सौ से कुछ ही कम रही थी। इस तरह, अगर उपचुनावों को अलग भी कर दिया जाए तो भी, इस चक्र में हुए तीन महत्वपूर्ण चुनावों में से दो में — हिमाचल तथा दिल्ली नगर निगम — भाजपा ने सत्ता गंवाई है, जबकि गुजरात में वह बढ़े हुए बहुमत के साथ अपनी सत्ता बनाए रखने में कामयाब रही है। इसे कम–से–कम मोदी की भाजपा के अजेय होने का सबूत तो नहीं ही माना जा सकता है। उल्टे यह तो इसी का संकेतक है कि सत्तारूढ़ भाजपा के खिलाफ जनता में खासा असंतोष है और उसे हराया जा सकता है!

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बहरहाल, चुनाव के इस चक्र में खासतौर पर विपक्ष के लिए, एक महत्वपूर्ण सबक है। दिल्ली के नगर निगम चुनाव में भाजपा ने पिछली बार सिर्फ 36 फीसद वोट लेकर, प्रभावशाली जीत हासिल की थी। लेकिन, इस बार 3 फीसद की बढ़ोतरी के साथ, 39 फीसद वोट हासिल करने के बाद भी, भाजपा उतने ही जोरदार तरीके से हार गई।

लेकिन कैसे? पिछली बार, कांग्रेस की प्रभावशाली उपस्थिति ने ज्यादातर सीटों पर चुनाव वास्तव में त्रिकोणीय बनाकर उसकी जीत का रास्ता बना दिया था, हालांकि खुद उसके हिस्से में ढाई दर्जन से ज्यादा सीटें नहीं आई थीं। इस बार, कुल 13 फीसद के करीब वोट हासिल कर के कांग्रेस, अपना यह वोट बहुत बिखरा हुआ रहने के चलते, आम तौर पर मुकाबले से बाहर ही बनी रही और करीब सीधे मुकाबले में अपने वोट में कुछ बढ़ोतरी करने के बावजूद, भाजपा को हार का मुंह देखना पड़ा।

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इसका उल्टा उदाहरण गुजरात ने पेश किया। बेशक, गुजरात में भाजपा को मिले 52 फीसद वोट के चलते, उसकी जीत को तो किसी तरह रोका नहीं जा सकता था। फिर भी यह समझना मुश्किल नहीं है कि करीब 13 फीसद वोट हासिल कर, विशेष रूप से कांग्रेस के परंपरागत समर्थन क्षेत्रों में मुकाबले को तिकोना बनाकर, आम आदमी पार्टी ने गुजरात में भाजपा की जीत को अभूतपूर्व बनाने में काफी मदद की है, हालांकि सरकार बनाने के अपने बड़बोले दावों के विपरीत, वह खुद पांच सीटों पर ही सिमट गई है। एक आकलन के अनुसार करीब 50 सीटों पर आप पार्टी ने चुनावी पलड़ा भाजपा के पक्ष में झुकाने का काम किया है।

साफ है कि जो विपक्षी पार्टियां मोदी के ज्यादा–से–ज्यादा अलोकतांत्रिक व केंद्रीयकरणकारी होते, जनविरोधी निजाम से देश को बचाने का प्रयास करने के लिए वाकई गंभीर हैं, तो उन्हें कम से कम राज्य स्तर पर एकजुट होकर भाजपा का मुकाबला करना होगा और तिकोने-चौकोने आदि मुकाबलों से सचेत रूप से बचना होगा। वर्ना जनता के बहुमत के अपने विरुद्घ होने के बावजूद, मोदी की भाजपा एक सौ तीस करोड़ भारतीयों की किस्मत तय करने की दावेदार बनी रहेगी। यह संयोग ही नहीं है कि गुजरात में आप पार्टी की अति-महत्वाकांक्षा के नतीजे इस अर्थ में भी सामने आ गए हैं कि उसके जोड़-बटोरकर किसी तरह सभी सीटों पर खड़े किए गए उम्मीदवारों में जीते कुल पांचों के चुनाव के नतीजे आने के फौरन बाद पाला बदलकर भाजपा में जाने के तैयार होने के संकेत आने लगे थे।

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इसलिए, अब जब यह साफ हो गया है कि रातों-रात दूसरी विपक्षी पार्टियों का विकल्प बन जाने की ऐसी सनक, भाजपा की ही मददगार साबित हो सकती है, उम्मीद के खिलाफ भी उम्मीद तो करनी ही चाहिए कि आप और तृणमूल कांग्रेस जैसी पार्टियां अकेले ही खुद को भाजपा का विकल्प साबित करने की ऐसी मुद्रा से, भाजपा की राह आसान करना बंद करेंगी।

(लेखक प्रतिष्ठित पत्रकार और ’लोकलहर’ के संपादक हैं।)

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