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जनता के विचारछत्तीसगढ़

वह भीड़ जो जलूस नहीं बन पाई : इनको कोसें नहीं, इनसे बात करें !!

(आलेख : बादल सरोज)

सीहोर के पास कथावाचक प्रदीप मिश्रा के कुबेरेश्वर धाम में इकट्ठा हुए 10 लाख लोगों ने जो पीड़ा, यंत्रणा और त्रासदी झेली उसकी खबर सबने देखी है। इनमें बच्चे थे, बुजुर्ग थे, महिलायें थीं। कई की मौत हो गयी – अनेक बीमार पड़े। इस सबके बावजूद राहत या मदद का हाथ बढ़ाने कोई नहीं आया। न मरने वालो को संवेदना मिली, न कुचले जाने वालों को हमदर्दी मिली। खुद को बागेश्वर धाम कहने वाले धीरेंद्र शास्त्री के तमाशे — उसे प्रवचन कहना प्रवचनों और प्रवाचकों दोनों का अपमान होगा — में भी लाखों की भीड़ इकट्ठा होने और उनमें भी मौतें होने की खबरे हैं। इतनी तकलीफ उठाने के बाद भी वे ही अपमानित और लांछित किये जा रहे हैं ; उधर भी गालियां मिल रही है, जिसने मनोकामना पूरी करने वाला रुद्राक्ष मुफ्त बांटने का धोखा देकर बुलाया था। वह इन सबको लोभी, लालची और मुफ्तखोर बता रहा है। इन ठगों के दरबार में ढोक लगाने वाले मुख्यमंत्री और गृहमंत्री से किसी कार्यवाही की तो अपेक्षा ही नहीं थी, मगर सहानुभूति के दो शब्दों तक के लिए इनके मुँह नहीं खुले। इधर, कथित सिविल सोसायटी की तरफ से भी इन्हे फटकार और तोहमतें ही मिल रही हैं, ज्यादा समझदार लोग इन्हे मूर्ख, नासमझ और गंवार कह रहे हैं।

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ये सिर्फ कुबेरेश्वर या बागेश्वर तक सीमित जमावड़े नहीं है ; इन दिनों वे हर संभव-असंभव, बसे और उजाड़ स्थान पर ठसाठस भरे खड़े हैं। एक अनुमान के अनुसार अकेले महाशिवरात्रि के दिन सिर्फ मध्यप्रदेश के 200 किलोमीटर के घेरे में उज्जैन, ओंकारेश्वर, सीहोर आदि कुछ जगहों पर कोई 50 लाख की तादाद में लोग जुटे। देश के बाकी इलाकों का जोड़ इसके अलावा है।

कौन हैं ये लोग? ये किसलिए आ रहे हैं?
कौन हैं ये लोग, जो इतनी भारी तादाद में आकर, अपने बच्चो और बुजुर्गों के साथ मरने तक की जोखिम उठाकर कभी इस पाखंडी के ठिकानों, तो कभी उस ढोंगी की दुकानों में अपार भीड़ जमा कर रहे हैं? ये किसलिए आ रहे हैं? क्या यह सचमुच के श्रद्धालु, धर्मप्रेमी लोग हैं? क्या अचानक से आस्था का इतना बड़ा ज्वार आ गया है कि लोग रोज सुबह-शाम दिखने वाले अपने घर में बैठे ठाकुर जी, गाँव डगर के मंदिर में डटे भगवान जी को अकेला छोड़ जहां कुछ नहीं दिखने वाला, उन जगहों के लिए ठठ के ठठ बनाकर निकल पड़े हैं। इसके लिए महंगी दक्षिणा चुका रहे हैं। प्रवचन सुनने की इच्छा इतनी तीव्र हो गयी है कि सारा काम-धाम, विवेक, दिमाग छोड़कर अपने कानों का हुजूम बना, निकल लिए हैं, सो भी धीरेंद्र शास्त्री जैसों के अपशब्दी बोलवचनो को सुनने!! इतने भावातुर हैं कि घोर अनादर, अपमान और धकियाये जाने के बाद भी रुकने या लौटने को राजी नहीं हैं। नहीं, ऐसा नहीं है।

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ये हारे और बुरी तरह घबराये लोग हैं
ये जीवन की मुश्किलों से थके और टूटे लोग हैं। किसी भी तरह की ख़ुशी से वंचित, पूरी तरह नाउम्मीद हो चुके लोग हैं। ये वे लोग हैं, जिनकी सारी आशायें, उम्मीदें खतरे के निशान को पार कर अटल गहराईयों वाली अनिश्चितता में डूब चुकी है। खेती से होने वाली इनकी जो थोड़ी-बहुत आमदनी भी अब सूख रही है, भुखमरी की तन्खा देने वाली नौकरी छूट रही है, बेटी-बहन की जवानी निकली जा रही है, शादी की कोई संभावना नजर नहीं आ रही है। बैंक या साहूकार से कर्जा लेकर या जमीन जायदाद बेच कर जैसे-तैसे बेटे-बेटियों की अच्छी से अच्छी, ऊंची से ऊंची पढ़ाई पूरी करवा तो ली – मगर लाख जतनों के बाद भी न उनके लिए कोई काम है, न काम मिलने की संभावना ही दीख रही है। कर्ज पर चढ़ती ब्याज सुरसा के मुंह की तरह बढ़ रही है, सो अलग।

ये बहुत ही ज्यादा परेशान और बिलबिलाए लोग हैं
उन्हें समझ नहीं आ रहा कि पहले से ज्यादा मेहनत करने, गिनती में पहले से ज्यादा नकद नोट लाने के बाद भी मकान किराया, बिजली पानी का बिल क्यों नहीं चुक पा रहा। सब्जी के कोने की तरफ खाली पड़ी थाली में रोटी गिनती में, भात मात्रा में और दाल गाढ़ेपन में कम क्यों होती जा रही है। समझ नहीं पा रहे कि तीन-तीन वर्षों के तीज-त्यौहार निकलने के बाद भी बीबी वही पुरानी साड़ी क्यों पहने घूम रही है। हतप्रभ है बेटी के कुर्ते को कसते, बेटे की जींस और शर्ट की सींवन को उखड़ते, माँ के टूटे चश्मे में बंधे धागे को लटकते देखकर। बुरे हाल में सिर्फ निम्न या निम्न मध्यम वर्ग वाले मजूरी जीवी ही नहीं ; इस भीड़ में कुछ ऐसे भी हैं, जो यूँ बाकियों की तुलना में थोड़ा सज-धजकर, आई-एंड्रॉइड-एप्पल फोन थामे, चौपहिया गाड़ियों में बैठ कर आये हैं। मगर भीतर-भीतर वे भी अपने छोटे मंझोले धंधे में पसरी मंदी से झुंझलाए, बैंक की किश्तें और ईएमआई के चूक जाने, कुर्की की आशंका से बौराये हुए हैं।

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ये उजड़े और उचटे हुए लोग हैं
कभी शिव. कभी राम. कभी कृष्ण तो कभी किसी लोकल घनश्याम के नाम पर निकलने वाली बारातों, चूनर यात्राओं में, देवी-देवों के पंडालों में, जगरातों और झांकियों में जो सबसे ज्यादा जोर से झांझ और मंजीरा बजा रहा है, वह नौजवान अभी अभी अपनी उस प्यारी माँ. जो कभी घर से बाहर निकलने से पहले लाड़ से उसके बाल संवार काजल का ढिठौना लगाती थी, उस स्नेहिल बाप “जो संभल कर जाना बेटा” कहकर अनुराग से उसे निहारता था ; उन दोनों से आवारा का तमगा पाकर, निखट्टू की गाली सुनकर आ रहा है। नारों के लगाने का उसका थरथराता उन्माद उसकी ग्लानि के दबे हुए अनुपात में है। घर-परिवार की अनिश्चितता से उसका मन जितना ज्यादा मलीन है, शोर मचाने में वह उतना ही ज्यादा तल्लीन है। बिना समझे जोर-जोर से तकरीबन हिस्टीरिक होकर चीखता-चिल्लाता वह जितना उत्साहीलाल बना दिख रहा है, अंदर से उतने ही पशोपेश से घिरा निराशानन्द है। इधर भले वो झूम रहा है, मगर उधर मन ही मन रात सबके सो जाने के बाद चुपके से घर में जाकर आहिस्ता से कोई कोना पकड़ लेने की जुगाड़ ढूंढ़ रहा है ।

ये खुद के शिकार का खुद ही चारा बने लोग हैं।
ये अंदर बाहर से इतने ज्यादा घेरे और जकड़े जा चुके हैं कि अच्छे-बुरे में फर्क करने के सलीके और दोस्त-दुश्मन की पहचान करने के शऊर से लगातार वंचित होते जा रहे हैं। समझ ही नहीं पा रहे हैं कि इन अचानक से विशाल हो रहे उत्सवों में पूड़ी, सब्जी, हलुए और प्रसादी के भंडारे लगाकर जो हाथ उन्हें दाना चुगा रहा है, यह वही हाथ है, जो उनके और उन जैसे करोड़ों की उम्मीदों और भविष्य की सम्भावनाओं को जिबह करने के लिए उन्हें एक-एक कर निकाल रहा है। यह वही हाथ है, जो इनके भविष्य की बत्त्ती गुल, रोशनी चोरी कर उसे किसी काली तिजोरी के उफनते पेट में जमा करता जा रहा है।

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ये अपनी ही चीख-पुकार से अपनी ही कराह दबा देने वाले लोग हैं
ये अपनी ही सूली को अपने ही काँधे पर उठाये गाजे बाजे के साथ मक़्तल की ओर जा रहे वे लोग हैं, जो समझ नहीं पा रहे कि सौ रूपये का आटा-चावल तक उधार देने में आनाकानी करने वाला, सुबह-सुबह शाखा लगाने वाला डंडीमार व्यापारी कारों में बैठकर, लिपे-पुते परिवार के साथ इनकी कांवड़ यात्रा की शुरुआत करवाने और उसके लिए 500 का एक नोट और भगवा गमछा-टीशर्ट थमाने आ रहा है, वह दान नहीं कर रहा – अपने खिलाफ उठ सकने वाली आवाज के होंठों को सिल रहा है।

हिन्दू को खतरे में, धर्म को संकट में बताने और उसे बचाने के लिए टाकीजों के सामने भीड़ लगाने, फिल्मों के पोस्टर फाड़ने और दूसरे फिरकों के अपने ही पड़ोसियो को गरियाने और उनकी ठुकाई लगाने के लिए जो ललकार रहा है, वह अभी-अभी अपने स्वयं के बच्चों को कीमती बायजुस दिलाकर, आईएएस-आईपीएस, आईआईटी-आईआईएम की महंगी कोचिंग पर छोड़कर आया है। उसका बेटा अभी-अभी अमरीका से पढ़कर कनाडा में बसने के लिए वापस लौटा है। हुल्लड़ मचवाने के बाद घर जाकर दूसरे बेटे को विदेश भेजने के लिए वीसा की जुगाड़ में जाने वाला है। गौ-रक्षा के नाम पर जो निरपराध हिन्दुस्तानियों को मार डालने की भीड़ में शामिल होने के लिए इसे ललकार रहा है, वह दुनिया भर में बीफ एक्सपोर्ट करने वाली कम्पनी चला रहा है, मेघालय, गोवा और केरल में सस्ता बीफ दिलाने के नाम पर चुनाव लड़ रहा है।

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उन्हें डर है कि ये भीड़ कहीं जलूस में न बदल जाए
मुट्ठी भर फूले, गदराये, लूट-लूट कर सन्नाये यही धनपशु हैं, जो धंधे के लिए भले आपस में लड़ते हैं, मगर फर्जी बाबाओं, ढोंगी साधुओं, मसखरे मदारियों के शामियाने तनवाने के लिए इकट्ठा हो जाते हैं। जो चुनाव की मंडी सजते ही अपनी पसंद के गर्धवों, घोड़ों और खच्चरों को महामानव बताकर, उन्हें जितवाने के लिए थैलियाँ ढीली करते हैं और बाद में पूरी पांच साल तक दिल्ली और प्रदेशों की राजधानियों में बैठ इन चालीस चोरों को अपने खजाने की ढुलाई में लगाते हैं। राजनेता कहे जाने वाले इन बिजूकों, अधिकारी कहे जाने वाले कठपुतलों से आदेश निकलवाकर शिक्षकों, पटवारियों, आंगनबाड़ी, आशा कर्मियों को ड्यूटी पर लगाकर इन प्रवचनों और भंडारों में भीड़ इकट्ठी करवाते हैं। उन्हें डर है कि ये भीड़ कहीं जलूस में न बदल जाए, इसलिए कभी अभिमंत्रित रुद्राक्ष, तो कभी मनोकामना सिद्ध ताबीज, तो कभी हिन्दू राष्ट्र की अफीम चटा कर उन्हें नींद में सुलाकर, तो अक्सर उन्हें अपनों से ही लड़ने-कटने में भिड़ाकर निश्चिन्त हो जाना चाहते हैं।

इन्हे कोसिये मत, इनके साथ इनका हाथ पकड़कर बैठिये
यदि भीड़ बने लोग आज नहीं समझ रहे हैं, तो जो समझ सकते हैं, वे तो समझें कि जरूरत इन्हें कोसने की नहीं, इनके पास जाकर, इनके साथ, इनका हाथ पकड़कर बैठने की है। उनके दुःख को समझने, धीरज से उनकी बात सुनने, उसका कारण बताने और समाधान समझाने की है, उपदेश की नहीं, संवाद की है। नाउम्मीदी खत्म करने का एक ही रास्ता है — उम्मीद जगाना। पस्तहिम्मती मिटाने का एक ही जरिया है — हिम्मत और हौंसला बढ़ाना। रास्ता सुझाने का एक ही रास्ता है — उस रास्ते पर चलकर दिखाना। जानकारी ही बचाव की सबसे बड़ी गारंटी होती है। प्रायोजित झूठ के तर्कसंगत खंडन के लिए तथ्य, आंकड़े और सुझाव इफरात में हैं। उन्हें पहुंचाने की जरूरत है। “अब कुछ नहीं हो सकता, अब कोई रास्ता नहीं बचा, अब तो होईये सोई जो करम लिखि राखा – फ्रॉड प्रधान विश्व करि राखा।” के टीना फैक्टर को वैकल्पिक नीतियों के हथौड़े से चकनाचूर करना होगा। पीड़ितों को डपटने की बजाय षडयन्त्रियों को पकड़ना होगा।

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इन्हे गरियाइये मत, जगाइये
इनकी अंधश्रद्धा और अंधविश्वास को गरियाने और दुत्कारने की बजाय उन्हें बताना होगा कि देश में इतनी संपदा और धनधान्य है कि एक भी व्यक्ति भूखा नहीं सो सकता। इतनी सामर्थ्य और संभावना है कि 18 वर्ष के ऊपर का एक भी भारतीय रोजगार के बिना नहीं रह सकता। इतना उत्पादन और मुनाफ़ा है कि हर मजदूर-कर्मचारी को कच्चा नहीं, पक्का रोजगार, मिनिमम ही नहीं, लिविंग वेज पर दिया जा सकता है। किसान और दिहाड़ी मजदूरों की बढ़ती आत्महत्यायें रुक सकती हैं और हर किसान को सस्ता खाद, मुफ्त बिजली और फसल का बाजिब दाम मिल सकता है। विज्ञान और तकनीक की इतनी जानकारी और उपलब्धता है कि किसी भी कोने में अन्धेरा नहीं रह सकता। चरक, धन्वन्तरि, सुश्रुत के देश में शहर, गाँव कस्बों तक इतने सारे डॉक्टर, कंपाउंडर, नर्स और पैरा मेडिकल स्टाफ है कि बिना इलाज के किसी के मरने की स्थिति नहीं आ सकती।

उन्हें बताना होगा कि यह मुमकिन है
सत्य तक पहुँचने का सबसे आसान और निरापद रास्ता तथ्यों से होकर गुजरता है। तथ्य बताते हैं कि इस देश में सम्पदा की कमी नहीं नहीं है। है, बहुत इफरात में है। मगर वह देश भर में प्रवाहित होने की बजाय कुछ गटरों और गंदे नालों में जमा हो रही है। पिछले 9 वर्षों में साल 2012 से 2021 तक, देश की 40 फीसदी आबादी के बराबर दौलत केवल 1 फीसदी के पास ट्रांसफर हो गई, जबकि आबादी के 50 फीसदी हिस्से के पास केवल 3 फीसदी धन आया।

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ऊपर के 10 फीसद रईसों के खजानो में देश की संपत्ति का 77 प्रतिशत जमा है। इधर 6 करोड़ 30 लाख भारतीय हर साल सिर्फ इलाज पर होने वाले खर्च के चलते गरीबी रेखा के नीचे जा रहे हैं।

जिस देश के संविधान में लिखा है कि आमदनी के अनुपात में 1:10 से ज्यादा का अंतर नहीं होना चाहिए, उस भारत में हालत यह है कि सरकारी न्यूनतम मजदूरी पर गाँव में काम करने वाले आम हिन्दुस्तानी को किसी टॉप कंपनी के बड़े अधिकारी की एक साल की आमदनी के बराबर पैसा पाने के लिए 941 साल तक काम करना पडेगा।

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यह मैलिग्नेंट ग्रोथ – कैंसर की बीमारी है – लगातार बढ़ती जा रही है। 1991 में जिस भारत में एक भी डॉलर अरबपति नहीं था, मोदी सरकार के आने के समय 2014 में इनकी संख्या 55 थी। आज भारत कुल 166 अरबपतियों के शिकंजे में है। हर रोज नए नए पैदा हो रहे हैं। हर रोज सैकड़ों की संख्या में बैंकों का खजाना लूटकर बाहर भाग रहे हैं।

इनकी कमाई अद्भुत है। कोरोना के लॉकडाउन में जब फैक्ट्री, बैंक, दूकान सब बंद थी, तब भी अडानी और अम्बानी अपनी संपत्ति में हर रोज 112 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी कर रहे थे।

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इन्हे कारूँ या कुबेर का खजाना नहीं मिला। इनके पास कोई कल्पवृक्ष या कामधेनु नहीं है। इनके पास एक चौकीदार हैं, जो एक तरफ इस तरह की डकैतियां डलवा रहे हैं और दूसरी तरफ लुटे पिटों को अफीम चटा रहे हैं।

जरूरी है इस भीड़ को जलूस में बदलना
इस भीड़ को जलूस में बदलना ही एक मात्र रास्ता है। यह सहज भी है, संभव भी है। इसके लिए पहले इन्हे इस लूट का अर्थशास्त्र समझाना होगा, उसके बाद इस लूट के खिलाफ उनके साथ मिलकर आवाज उठाना होगा ; इनका अलगाव और अकेलापन दूर कर इस भीड़ को जलूस में बदलने के लिए यह जरूरी और अनिवार्य है, मगर इतना भर काफी नहीं है। रोजी, रोटी, पानी, बिजली, सेहत और इंसानी जिंदगी के हक़ अधिकार मांगना और उन्हें हठ करके हासिल करने के लिए यह भीड़ जलूस में तभी बदलेगी, जब यह धर्म के नाम पर अधर्मी काण्ड करने वाले धूर्त सौदागरों की अफीम से आजाद होगी। स्वामी विवेकानंद के शब्दों में “धर्म के जिन एजेंट्स और दलालों से खुद ईश्वर, गॉड और खुदा खतरे में हैं, उनके झांसे से बाहर निकालना होगा।”

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इतिहास में ऐसा ही हुआ है। अंगरेजी राज में धर्म की फर्जी ध्वजा लहराने वाले ये पाखंडी रानी एलिज़ाबेथ और विक्टोरियाओ के राज की सेवा करते थे, आजादी के सैनानियों के साथ गद्दारी करते थे, धर्म के नाम पर हिन्दू राष्ट्र, इस्लामिक राज बनाने के नाम पर जनता को विभाजित करते थे। भारत की जनता ने उन्हें ठुकराकर स्वतंत्रता हासिल की ; धर्मनिरपेक्ष, लोकतांत्रिक राज्यों का गणतंत्र स्थापित किया। संविधान बनाया।

ताजे इतिहास में किसानॉन ने तीन देशघाती कानूनों को वापस कराया। मजदूरों ने चार लेबर कोड्स को रोक कर रखा। संविधान बदलने की हर साजिश को अब तक नाकाम करके रखा है। यही लुटे पिटे, हारे थके, हड़बड़ाये और बिलबिलाये लोग इतिहास रचते हैं, क्योंकि इतिहास विनाश के नहीं, सृजन के होते हैं।

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